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(७३) तिनोका नाम विषय, प्रयोजन, संबंध, अधिकारी है. जैसे वैदक ग्रंथके चार अनुबंध होते है तैसे वेदांतके होते है; जैसे रोग,
औषधियों तथा निदानोंका रूप वैदक ग्रंथोंका विषय है, तैसे वेदांतका जीव ब्रह्मकी एकता विषय है. जैसे अनर्थकी निवृत्तिपूर्वक परमानंदकी प्राप्ति वेदांतोंका प्रयोजन है, तैसे रोगकी निवृत्तिपूर्वक जा शरीरकी पुष्टी है सो वैदक ग्रंथोंका प्रयो. जन है. जैसे वैदकमे रोगी अधिकारी है, से वेदांतमे मुमुक्षु अधिकारी है. वेदांत वैदक इन दोनो. ग्रंथोंमे जो विषय है तिनाका अरु ग्रंथोंका प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव संबंध है. ___शशिष्य उवाच.हे नाथ कृपालो । मै कवन हूं? क्या ब्रह्मसे भिन्न हूं अथवा अभिन्न हूं? जो भिन्न कहो तो “ द्वितीयाद्वै भयं भवतीति ” इस श्रुतिसे मुक्ति नही होनी चाहीये. काहेते यह श्रुति कहती है जो भेददृष्टिसें भय निवृत्त नही होती.
और जो अभिन्न कहो तो अभिन्नता रूप जो जीव ब्रह्मकी एकतारूप ग्रंथका विषय है सो विषय जैसे नही बनता तैसे विस्तारसे कहता हं. जीव और ब्रह्मको स्वरूपसे धर्मोसे परस्पर विलक्षण होनेते तिन दोनोकी एकता बनती नही, सोदिखावताहूं.
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