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(७७)
तिनोंमे भी इतना भेद है. नेत्रेंद्रिय रूपको तथा रूपके आश्रय जे घटादिक है तिनोकों विषय करे है, तैसे त्वचाभी साश्रयस्पर्शको विषय करे है, शेष रसना, घ्राण, श्रांत्र ये तीनों इंद्रियों तो रस, गंध, शब्द, मात्रकुं अनुभव करे है, आश्रयको नही जानते. इस रीतीनें इंद्रियोंसें तो अंतःकरणका ज्ञान होइ सकता नही. अंतःकरणको अपंचीकृत भूतोंका कार्य दोनेते तथा इंद्रियोंते भी भीतर होनेते. जैसे अग्नि अपने दाद शक्तिका विषय नही होता तैसे अंतःकरण अपनी वृत्तिकाभी विषय नही होता.
५ और अंतःकरणके रागद्वेषादिक जे धर्म है ते भी अंतःकरण के वृत्तिके विषय नही होते, अंतःकरणमे संलग्न होनेते ॥ विषय सो होता है जो अपने आश्रयसे दूर होवे, जो संलग्न होवे सो विषय नही होता, जैसे नेत्रोंमे संलग्न जो अंजन है सो नेनेंद्रिय के वृत्तिका विषय नही होता तैसे अंतःकरण के जे सुखादिक धर्म है ते भी स्ववृत्तिके विषय नही होते. इस कारणते धर्मों सहित अंतःकरणका ज्ञान अंतःकरणसे अथवा तिसके वृत्तिसे अथवा इंद्रियों से भी नही होनेते तिस कारणते केवल साक्षीसही सधर्म अंतःकरणका ज्ञान होता है.
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