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रज्जुमे सर्पभ्रांति होवेहै.सत्यवस्तुके ज्ञानजन्यसंस्कारोंकीही अध्यासमे आवश्यकता नही है एसे निश्चय करना. और जो आपने कहा ब्रह्म अरु जगत्को विपरीत होनेते सादृशता नही बनती.जहांआधिष्ठान अध्यस्तकी परस्पर सादृशता होवे है तहांही अध्यास होवे है सो ठीक है. यहांभी घटादि दृश्य जगतमे और ब्रह्ममे अस्तिभातिप्रियता है सा सादृशता प्रत्यक्ष है "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" "सर्व खल्विदं ब्रह्म" इस श्रुतिसे दोनोमे अस्ति, भाति, प्रियता की सादृशता होनेते सादृशता नही है यह कहना क्या योग्य है? यांत सादृशता बननेसे अध्यासन्नी बने है तिसकी ज्ञानसे निवृत्तिभी सुखसे ही होवेगी.
५ शिष्प उवाच. दोषोंका अभाव कहना हमकों योग्यही है.काहेते जो कारण होवे है सो कार्यकी उत्पत्तिते अव्यवधान पूर्वकालमे ही होवे है. यहां सादृशता दोषवाले घटादिक और पित्तादि दोषवाले नेत्रादिक लोभादि दोषवाले प्रमाता ये संपूर्ण अध्यास रूप है यांते अध्यासत पूर्व तिनोका अभाव होनेते अध्यास प्रति कैसे कारण हो सकते है? ६॥ श्रीगुरुरुवाच.दे प्रिय ये अध्यासके प्रति नियमसे कारण होवे तो तिनोके होने की आवश्यकता होवे. इनोके न होनेसे भी जैसे आकाशमें नीलता नासे दे
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