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( ९१ )
तैसे दोषत्रय विनाभी ब्रह्ममें प्रपंचका मिथ्या संभव हो सकता है यांते त्रिदोषका न होना दमकुं ईष्टदी है जहां एक समर्थ अविद्या रूप दोष है तदां दूसरेका क्या काम है.
और जो आपने कहा है ब्रह्मस्वयं प्रकाश है तिसमे विशेष अज्ञान नही बनता निरंशमे सामान्य विशेषभाव भी नही बनता. सो यदभी तेरा कहना अज्ञात से है. कादेते ब्रह्मको सर्वरूपद्दोनेते मूढ रूपधारी ब्रह्मखरूपमे मै नित्यमुक्त स्वयं प्रकाश हुं अखंडानंदरूप हूं. एसे अज्ञान देखने मे आवता है. जैसे सूर्यमे उलूक और अंधजन अंधकार देखते है.
७ ॥ और निरंशमे सामान्यभाव विशेषभाव भी देखने आवे है . ॥ ब्रह्मास्ति ॥ ब्रह्म है. घट है यह सामान्यभाव है. मै नित्यमुक्त निर्विकल्पानंद घन सर्व व्यापी हुं. एसे विशेषरूपको तो ज्ञानवान जाने है यांते स्वप्रकाशमे विशेष ज्ञानकाअभाव तथा निरंशमे सामान्य विशेषभाव सिद्ध है. यही अध्यासकी सामग्री सिद्ध भई सामग्री के सद्भावसें संसार को असत्य दोनेते तिसकी ज्ञानसे निवृत्तिद्वारा परमानंदकी प्राप्तिभी निर्यत्न सिद्ध दो. नेते ग्रंथका प्रयोजन निर्विघ्न सिद्ध भया ॥ * ॥ इतिश्री एकादशकमलमे प्रयोजनं समाप्तं ॥
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