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(९६)
ॐ अत्र शास्त्रानुबंधयोः कांडसमाप्तौ मंगलस्थानीयं । सामवेदीय द्वांदोग्यकेनोपनिषदोः शांतिपाठ माश्रयामि ॐ ॥ आप्यायंतु ममांगानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिंद्रयाणि । च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं मादं ब्रह्म निरा कुर्या मामा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण मस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु ते मयि संतु ॥ हरि ॐ शांतिः ३ ॥ अर्थः॥ ॐकार एक यह प्रार्थना करता हु हमारे वाक् प्राण चक्षुः श्रोत्र बल वाकी भी सर्व इंद्रियों विषयवासना से रहित होकर ब्रह्मज्ञान वास्ते अंगरूप नाम साधनरूप आप्यायं तु नाम पुष्ट योग्यता वाले हो जावे | और दूसरी प्रार्थना यह है | उपनिषद् गम्य सर्व रूप ब्रह्म है तिस ब्रह्मका मै विस्मरण न करूं सो ब्रह्म मेरी भी उपेक्षा न करे मेरे से ब्रह्मका अनादर न होवे तथा ब्रह्मसे भी मैं अनादरको न पावों और तीसरी प्रार्थना यह है ॥ जे वेद पवित्र धर्म कहे है ते संपूर्ण आनंदरूप तथा ब्रह्माभिन्न जो मैतिस हमारेमे निवास करे ।। हरिॐ
॥ ॐ सहनाववतु ये पाठसामने लिखा है अर्थ यहां सुनो ॥ गुरुशिष्यका पठनपाठ गुरुशिष्य दोनोकी रक्षा करे सुख भोगावे बलवान् तेजस्की करे गुरुशिष्यकों यपस्पर द्वेषवान् न करावें.
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