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(७९) ६ सो साक्षी एक कहोंगे तो एकके सुखदुःखका सर्वशरीरमे भान होना चाहीये, नाना मा. नोंगे तो एक ब्रह्म के साथ साक्षीकी एकता नही होनते वेदांतग्रंथका विषयही न बनेगा.
७ श्री गुरुरुवाच-हे प्रिय जैसे घटउपाधि सहित जो घटाकाश है तिसकी महाकाशके साथ एकता नही भी बनती तौभी घटउपाधिरहित घटाकाशकी महाकाशके साथ एकता बने है. तैसे रागद्वेषवाले अंतःकरणसहित जीवकी ब्रह्मके साथ ययपि एकता नही बन है तौभी रागद्वेषवाले अंतः. करण उपाधिसे विनिर्मुक्त जो साक्षी है तिसकी ब्रह्मके साथ एकता बने है तिसमे कोइ दोष नही.
८ और जो आपने कहा है अंतःकरणके जे रागद्वेष, सुखदुःखादिक धर्म है ते अंतःकरणके विषय नही, किंतु साक्षीके विषय है, सो साक्षी नाना रूप है एकरूप नही. एकरूप जो मानो तो एकके दुःखी होनेसें सर्व दुःखी होने चाहीये; क्यों जो साक्षीको एकरूप मान्या है सो यह आपका कथन अनुचित है. काहेते जो एकही अंतःकरण तमोगुण करके रागद्वेषादिकेंको आकारको धारण करता है. और सात्विक गुणसे ज्ञानाकार परिणामको पावता है.
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