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(७५) जीव तो राग, द्वेष, अभिनिवेश, अस्मिता अज्ञान, इन पंचक्लशवाला है. ब्रह्म पांच क्लेशोंते रहित है, तथा एकरूप है, और जीवतो नानारूप है एकरूप नहि, जो जीव एकरूप कहो तो एकके सुखीदुःखी हानेते सर्व सुखीदुःखी होने चाहीये. एसे होता नहीं यांते जीव नाना मानने चाहीये.
३ और जो कहो अंतः करण नाना है अरु सुखी दुःखीभी अंतःकरणही होता है आत्माके सुखदुःख धर्म नही यांते सर्व शरीरोंमे आत्माको सुखदुःखा. दिकोंका भान नहीं होता,जीवसाक्षीतो पांचक्लशते रहित है तथा एकरूप है तिसकी और ब्रह्मकी एकता बनती है.सो यह आपका कहना वनता नहीकाहेते जो जीवते भिन्न साक्षीका अभाव होनेते भिन्नसाक्षी मानना न चाहीये जो भिन्नभी मानो तोभी नाना मानना होवेगा, एक नही मान सकते.
४ सो दिखावता हं. अंतःकरणका ज्ञान तथा तिसके सुखदुःख रागद्वेषादिक जे धर्म है तिनोका ज्ञान केवल साक्षीसेंही होता है, अंतःकरणसें अथवा इंद्रियोतें होश नही सकता. इंद्रियोंको बहिर्मुख होनेते अंतःकरणके सन्मुखही नही होती. और इंद्रियोंको पंचीकृत भूतोंके जाननेकीही शक्ति है
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