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(५७) “सर्वं खल्विदं ब्रह्म ।” इस ज्ञानदृष्टि से सर्व जगतको ब्रह्मरूप देखनाही सुंदर दृष्टि है, नासाको देखना उत्तमदृष्टि नहि है. १३ ।
दृष्टा, दर्शन, दृश्य, इन तीनोका जहां अभाव है एसे निर्विकल्प स्वरूपको ही अनुभव करना. नासाके अग्र भागसे दृष्टि हटाय लेनी. १४
जहां जहां मन जावे तहांही ब्रह्मरूप यह है एसे अधिष्ठान ब्रह्मविषे मनके स्थितिको धारणा कहींहै१५
मै सदानंदस्वरूप हूँ एसे विषयचिंतन विना जा परमानंददायनी मनकी दृढ स्थिति है,सो ध्यान है१६ ____ में निर्विकार हूं, मैं ब्रह्म सच्चिदानंदस्वरूप हूं इस प्रवाहसे संसारद्वैतकी अखंडविस्मृति जब होइ जावे तिसका नाम समाधि जाननी. १७
एसे ज्ञानामृतकरके उन्मत्त योगीको किंचित् भी कर्तव्यका भान नहीं रहता, जिसको कर्तव्य कर्मका भान रहता है सो पूर्णयोगी न जानना, यह अर्जुनको कृष्णकमलापति उत्तरगीतामे कहा है.१८
निर्विकल्पस्थितिसमय मेरी बुद्धि शांत होगई है यांते प्रवृत्ति कहा होवे; परावरकी एकताके अनुभवस परोक्षापरोक्षकाभी भान नहीं रहा, कितना सुख है तिसका भी अंत मिलता नहीं ये आचार्य श्रीपूज्यपादोंका अनुभव है. १९-२०
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