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(६५) एक परिघनामवाला अष्टांगयोगी राजा था. तिसके राज्यमे जब दर्भिक्ष भया तिसमें प्रजाको बहुत दुःखी देख करके तिसके दुःख निवृत्त्यर्थ प्रयत्न न करके संपूर्णदुःखी प्रजाका परित्याग करके अज्ञात विजन वनमे समाधिस्थितिम बहुत संवत्सर व्यतीतकरके जब समाधिसे चित्न उद्वेग हुवा तब तिसका ज्ञाननिष्ट सुरघुराजा परमस्नेही जो था तिसके मिलनेको गया. जब परस्पर एकासनपर दो चंद्रसूर्य समान विराजमान भये तव परिघ राजा प्रिय विश्वासवाली पूर्वस्नेहसंबंधि कुशलता पूछकरके अमृतवाली वाणीसें बोलता भया.
परिघ उवाच ॥ दे राजन् हे सुरघो, इस संसारजालमे जो कर्म कीयेजाने है सो समाधिवालेको मुख देवे है ओर जो समाधि रहित चंचलचित्तवाला है तिसको सुख देते नही ॥ २ हे प्रियतम आप कबी निर्विकल्प परमशांति देनेवाली परमविश्रांतिका स्थान जा समाधि है तिसको करते हो? क्या नही करते ? तिसके सुननेकी हमारी बहुत इच्छा है.॥३ ____२॥ सुरघुरुवाच ॥ हे भगवन् यह हमको सुनावो, निर्विकल्प शांतिदाता एसी समाधि किसको कहते हो ? ४ हे महात्मन्, जो ज्ञानी है सो व्यवहारमे वा ध्यानमे क्या स्वनिष्ठा ते चलता है ? ५,
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