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(३५)
२||अर्थः- ब्रह्म अनादि तथा अनंत है, मायाका अधिष्ठान होनेसे. तिस मायासे ब्रह्मकी उत्पत्ति होवे नही जैसे अंधकारसे गृहकी उत्पत्ति नही होती, और जैसे पुत्रसे पिता उत्पन्न होवे नही, तैसे - ह्मका आभास रूप तथा पश्चात् भावी एसे जीवईशते भी ब्रह्मकी उत्पत्ति नही होनेसे ब्रह्म अनादि है. तथा 'सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म' इस श्रुति प्रमाणसे अनंतभी है. माया अनादि तथा ज्ञानसे नाश होनेते सांतभी है. बह्म निर्विकार होनेते मायाको उत्पन्न करता नही. तथा मायाते पश्चात् जन्म पावनेवाले जीवईश्वर भी मायाकी उत्पत्ति नहीं होनेते माया अनादि है. 'मायाऽऽभासेन जीवेशौ करोति' इस प्रमाणसे मायाद्वारा जीवेश प्रगट होनेते मायाको कैसे उत्पन्न करेगे ? याते माया अनादि है तथा ज्ञानसे अंतवाली है ||
३ ॥ जीव, ईश्वर अनादि है तथा ज्ञानसे नाशवंत होनेसें सान्त कह्या है. केवल ब्रह्मसे केवल मायासें तथा परस्पर जीवईश्वरकी जीवईश्वरसे और जीवेश्वर सिद्ध होनेपर जो जीवेश्वरका भेद तिससेभी जीवईश्वरकी उत्पत्ति नही होनेते, जीव ईश्वर दोनो अनादि है.
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