________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(४१)
४ ॥ निर्विकल्प समाधि तिसको कहते है जिसमे मै ब्रह्म हूं इस त्रिपुटीकाभी भान नही होता. निर्विकल्प समाधिमे त्रिपुटी है परंतु जैसे समुद्रसे सैंधव पृथक प्रतीत नहीं होता तैसे ब्रह्मसे भिन्न त्रिपुटीका स्फुरण नही होता, तद्रूप होनेसे.
५॥ पुनः निर्विकल्प समाधि अद्वैतभावनारूप अद्वैतावस्थानरूप भेदसे दो प्रकारकी होती है. तिसमे जा अद्वैतभावनारूप निर्विकल्प समाधि है तिसमे त्रिपुटीके विद्यमान होने परभी त्रिपु. टिका भान होता नहीं जैसे जलमे लवण होवे तौभी नेत्रंद्रियसे देखणे विषे आवता नही, तद्वत् त्रिपुटीका न भासना जानना ॥ तिसमे श्रीवशिष्ठका श्लोक प्रमाण है. तहां कहते है कि जब अंतः. करणमे निर्विकल्प ध्यानकी प्रबलतासे सर्व पदाथोकी विस्मृति द्रढ होवे है तब सूक्ष्म परब्रह्मको प्राप्त होवे है. तहां अंतःकरणका अत्यंताभाव न होनसे यह समाधिवालेका देहभी गिरता नही.' एसे श्रीवशिष्ठग्रंथमे वशिष्टजीने कह्या है. सा अद्वैतभावना नामवाली समाधि जाननी ॥
For Private and Personal Use Only