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(४९) श्रीभागवत तथा श्रीभगवद्गीतामेभी पूर्वोक्तकहा है.
॥ भागवतमें 'जिस आत्मारामी पुरुषकों स्वजन्म, कर्म, वर्ण, आश्रम, जाते आदिकों मे अहं
अभिमान नही सो हरिकों प्रिय है'. ॥ गीतामें जिस आत्मवेत्ताका मन सर्वत्र सम, परमात्मामे आसक्तिवाला है तिसने इसी ज. न्ममें अपने संसारद्वैतका नाश कीया. जो समपदमें तथा द्वैतदोषसे रहित पदमें स्थित है तिनोंकी परमात्मामें स्थिति जानो;यांते सम ब्रह्ममे मग्न रहना. पूर्वोक्त प्रकार से देहविषे तथा वियों विषे दोष दृष्टि करना, इससे कषाय विनका नाश होता है।
११ ॥ रसास्वादरूप विघ्न तिसको कहते है जो संसारके दुःखाभावका चिंतनरूप है तथा आत्मानंदके सुखका चिंतन रूप है. तिसको व्यर्थकाल जानेका स्मरण करनेसें निवृत्ति कर मनकों निर्विकल्पमे लगावे; जैसे मूढ पुरुष निधिके प्रतिबंधरूप सर्पको मार करके भी निधिको न ग्रहण करे किंतु सर्पनिवृत्तिजन्य सुखकाही चिंतन करे तो निधिसुखसे विमुख ही रहता है, तैसे रसास्वादमे आसक्तिवालाभी सच्चिदानंद मुख्यसुखसे विमुख रहता है. ताते रसास्वादका त्याग कर अखंडानंदके ध्यानपरा. यण होवे, ये निवृत्तिका उपाय कहा.
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