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(३३) १५॥ और जैसे वस्त्ररंजनरूपकर्मसें गुणांतरकी प्राप्तिरूप फल होवे है सो मुमुक्षुका स्वरूप निर्गुण होनेते तिस वास्ते रंजनकर्मविषेभी मुमुक्षुकी प्रवृत्ति संभवती नदी. पूर्व मलनिवृत्ति कही, अब रंजन कर्म कह्या, सो दोनो एक जानना. यांते कर्म पांच प्रकारके है षट्, प्रकारके नहीं॥ ॥ इति चतुर्थकमलं मीमांसावर्णनात्मकं समाप्तम् ॥ * ॥ अथ पंचम कमलमे षड्पदार्थ अनादि
कथन करेंगे। १ कर्म उत्पनिवाला होनेसे सादि है और ब्रह्म अनादि है. यांते, इस प्रसंगसे औरभी जो अनादि षट् पदार्थ है सोभी दिखावते है, श्रवण करो. ब्रह्म अनादि अनंत है, और जीव, ईश, अरु दोनो ईश जीवका भेद, माया, संबंध; ए पांच अनादि सान्त है " जीव ईशो विशुद्ध चित्तथा जीवेशयोर्भिदा मायाच तच्चितोर्योगः पदस्माकमनाहयः । इस प्रमाणसे एक जीव दूसरा इश्वर, तीसरा शुद्ध चतन चतर्थ जीव ईश्वरका भेद, पंचमी माया, षष्टमो मायाचेतनका संयोग ये षट्वेदांतमतमे अनादि माने है. सो जैसे अनादि है सो क्रमसे दिखावते है
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