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( ३१ )
यांते ब्रह्मजिज्ञासूकी उत्पत्तिरूप प्रयोजन वास्ते कर्मोंषि प्रवृत्ति बनती ही नही, घटउत्पत्तिवास्ते कुलालकी न्यांई इति.
१३ || और जैसे दंडप्रहारसे घट नाश होवे है सभी अज्ञान नाशवास्ते मुमुक्षुकी प्रवृत्ति कविषे होवे नही. किंतु अज्ञानका नाश ज्ञानसेही होवे है, कर्म से नही ।। और जैसे गमनक्रियाका फल ग्रामांतरकी प्राप्ति होवे है तैसे मुमुक्षुको "तत्वमसि " तुम ब्रह्म हो. ऐसे वेद वाक्यसे तद्रुप होनेते गमन क्रिया भी कछु प्रयोजन नहीं है.
१४ || और जैसे पाकक्रियाका फल अन्नका परिणाम भोजनरूपकी प्राप्ति होवे है, सोभी मुमुक्षुको निर्विकार कूटस्थरूप होनेसे इच्छाका विषय नही होते तिस कमविषे प्रवृत्ति दावे नही | और जैसे प्रक्षालनरूप क्रियासे मलकी निवृत्तिरूप फल होवे है तिसवास्तेभी मुमुक्षुकी प्रवृत्ति बने नही. आत्माको स्फटिकमणिवत् शुद्ध होनेते ॥ चित्त की मल निवृत्ति वास्ते प्रवृत्ति कहो सोभी मुमुक्षु होने से प्रथमढ़ी सिद्ध है अज्ञानरूप मलनिवृत्ति वास्ते प्रवृत्ति कहो सो तो ज्ञानविना कोटि कमसेंभी नही होवे है. तिसवास्ते भी मुमुक्षुकी कर्मों मे प्रवृति नदी वतती.
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