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वंदना करता है; इसी प्रकार की गुणग्राहिता का व्यवहार सभी साधुओं को करना चाहिए ॥ ५८ ॥
ते धन्ना ते साहू, तेसिं नमो जे अकज्जपडिविरया । धीरा वयमसिहारं चरंति, जह थूलभद्दमुणी ॥५९॥
शब्दार्थ : उन सुसाधुओं - संतों को धन्य है, जो अकार्यों से निवृत्त हैं । उन धीरपुरुषों को नमस्कार है, जो तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हैं; जैसे स्थूलभद्र मुनि ने इस दुष्कर व्रत का आचरण किया था ॥५९॥
विसयाऽसिपंजरमिव, लोए असिपंजरम्मि तिक्खमि । सीहा व पंजरगया, वसंति तवपंजरे साहू ॥६०॥
शब्दार्थ : 'जैसे जगत् में तीक्ष्ण खड्गरूपी पिंजरे से भयभीत सिंह लकड़ी के पिंजरे में रहता है, वैसे ही विषयरूपी तीक्ष्ण तलवार से डरे हुए मुनि भी तप रूपी पिंजरे में रहते हैं ॥६०॥
जो कुणइ अप्पमाणं, गुरुवयणं न य लहेइ वएसं । सो पच्छा तह सोअइ, उवकोसघरे जह तवस्सी ॥ ६१ ॥
शब्दार्थ : जो गुरुवचनों को ठुकरा देता है, उनके हितकर उपदेश को ग्रहण नहीं करता; वह बाद में पछताता है । जैसे सिंहगुफावासी तपस्वी मुनि ने (स्थूलभद्र मुनि से ईर्ष्यावश ) उपकोशा के यहाँ जाकर पश्चात्ताप किया था ॥ ६१ ॥
उपदेशमाला
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