Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१८
तीर्थकर चरित्र
किया--" में कितना दुर्भागी हूँ कि मनुष्य होते हुए भी नारकीय जीवन बिता रहा हूँ। अभी पेट भरने का ठिकाना ही नहीं लग रहा है और यह फिर गर्भवती हो गई । शत्र के समान पुत्रियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इन दरिद्रता को देवियों ने मुझे बरबाद कर दिया। मेरी शान्ति लूट ली। मैं भूख की ज्वाला से सूख कर जर्जर हो गया। अब भी यदि कन्या का ही जन्म हुआ, तो मैं इन सभी को छोड़ कर चला जाऊँगा।" इस प्रकार चिंता ही चिंता में वह घुल रहा था फिर उसके पुत्री का ही जन्म हुआ। जब उसने यह सुना तो घर से ही भाग निकला । नागश्री को प्रसव के दुःख के साथ पति के पलायन का दुःख भी सहना पड़ा। वह सद्य जन्मा पूत्री पर अत्यंत रोष वाली हई। उसने उसका नाम भी नहीं दिया, साल-संभाल भी नहीं की। फिर भी वह सातवीं लड़की बड़ी होती गई । लोग उसे 'निर्नामिका' के नाम से पुकारने लगे । बड़ी होने पर वह दूसरों के यहाँ काम कर के अपना पेट पालती रही। एक बार किसी त्यौहार के दिन किसी बालक के हाथ में लड्डू देख कर उसने अपनी माता से लड्डू माँगा । माता ने क्रोधित हो कर कहा-- "तेरा बाप यहाँ धर गया है, जो मैं तुझे लड्डू खिला दूं । यदि तुझे लड्डू ही खाना है, तो रस्सी ले कर उस अम्बरतिलक पर्वत पर जा और लकडी का भार बाँध ला। उसे बेच कर मैं तुझे लड्डू खिला दूंगी।" माता की ऐसी आघातकारक बात सुन कर निर्नामिका रोती हुई पर्वत पर गई । उस समय पर्वत पर युगन्धर नाम के महा मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हआ था और निकट रहे हए देव, केवल-महोत्सव कर रहे थे । निकट के ग्रामों के लोग भी केवलज्ञानी भगवान् के दर्शन करने आ-जा रहे थे । निर्नामिका उन्हें देख कर विस्मित हुई और उत्सव का कारण जान कर वह भी महा मुनि के दर्शन करने चली गई। उसने भी भक्तिपूर्वक वन्दना की । केवल ज्ञानी भगवान् ने वैरायवर्धक देशना दी । निर्नामिका ने पूछा--" भगवन् ! आपने संसार को दुःख का घर कहा, किन्तु प्रभो ! सब से अधिक दखी तो मैं ही हूँ। मुझ से बढ़ कर और कोई दुखी नहीं होगा।" सर्वज्ञ भगवान् ने कहा"भद्रे ! तेरा दुःख तो साधारण-सा है, इससे तो अनन्त गुण दुःख नरक में है । वहाँ परमाधामी देवों द्वारा नारक जीव, तिल के समान कोल्ह में पीले जाते हैं, वसूले से छिले जाते हैं, करवत से चीरे जाते हैं, कुल्हाड़े से काटे जाते हैं, घन से लोहे के समान कूटे जाते हैं, शिला पर पछाडे जाते हैं, तीक्ष्णतम शूलों की शय्या पर सुलाये जाते हैं। उन्हें उबलता हआ सीसा पिलाया जाता है। उन्हें अनेक प्रकार के दुःख, परमाधामी देवों द्वारा दिये जाते हैं। वे मरना चाह कर भी नहीं मरते। उनका शरीर टुकड़े-टुकड़ हो कर भी पुनः दुःख भोगने के लिए पारे के समान जुड़ जाता है और फिर भयानक दुःख चालू हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org