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सुख भोगि मरै। पीछे मनुष्य तिर्यंच नारकी होय सो नहीं गिनना जब कोई पुण्य योगः देव ही भया। तब दुसरा, भव होय । रीसे करते देव के असंख्याते भव करै। ऐसे ही क्रम त मनुष्य के असंख्याते भव करै। ऐसे ही || असंख्यात भव नारको के करै। ऐसे हो तिर्यंच पंचेन्द्र के भव करै। इत्यादिक रोसे अनुक्रम लिये चारि गति सम्बन्धी सर्व भव कर सो जाकू जैता काल लागै सो भव परावर्तन है। इति चौथा भवपरावर्तन । आगे पाँचमा भावपरावर्तन को कहिये है-जो सक्ष्म निगोद लब्धपर्याप्तक जीव के अक्षर के अनन्तवें भाग जघन्य ज्ञान है सो ऐसे ज्ञानसहित वा सो अनेक पर्यायन में उपज्या सो नहीं गिना। खस निगोद में भी उपज्या परन्तु बहुत झानधारी उपग्या सो नाहों गिन्या ऐसे करते अनन्त भव भये जब कोई कर्मजोग त ऐसा भव पाया जो जघन्य जान ते एक अंश अधिक ज्ञान का धारी मया । तब दूसरा भव भया, फेरि मूवा उपजा अनेक पर्याय चारगति की अधिक ज्ञान सहित धरी सो नहीं गिनै। जब अनन्तकाल गये ऐसे भव पावे जो जघन्य ज्ञान तेंदोय अंश बधता शान होय। ऐसे एक अंश ते बघता-बघता अनुक्नमते असंख्याते अंश बधते जेता काल लागै सो पांचमां भाव परावर्तन है। इति यश्चमा भावपरावर्तन ॥ आगे इन परावर्तन के काल की अधिकता व होनता कहिये है-सो प्रथम ही पुद्गलपरावर्तन का काल अनन्त है तात अनन्तगुनाकाल क्षेत्रपरावर्तन का है तातें अनन्तगुनाकाल कालपरावर्तन का है। तात अनन्तगुनाकाल भवपरावर्तन का है। तात अनन्तगुनाकाल भावपरावर्तन का है। ऐसे-ऐसे परावर्तन, संसार भ्रमण करते दुःख भोगते अनन्त हो गये सो जब जीव के काललब्धि निकट आवे तब संसारी जीव के पंचलब्धि होय हैं । सो आगे लब्धि कहिये हैंगाथा-खयुक्सम देस सोई, पायोगम कण्णलब्धि पण भेवी। चच सम्म भव्दा भवो, कणणो न भवेय होय सम्मत्तं ॥४॥
अर्ध-तयोपशम्, देशना, विशुद्धि, प्रायोग्य, करण, यह पाँच लब्धि हैं। अब इनका सामान्य अर्थ-कर्म के क्षयोपशम ते प्रगट होय ऐसा संज्ञीपना पंचेन्द्रीपना इनको शक्तिरूप भाव सो क्षयोपशम लब्धि है। जो संज्ञी पंचेन्द्री नहीं होय तौ सम्यक्त नांही होय। ता संज्ञी पंचेन्द्रीपने का क्षयोपशम चाहिये। ३ । और गुरु के उप|| देश धारने को शक्ति सो देशनालब्धि है। जो गुरु के उपदेश धारवे की शक्ति नाहीं होय ता सम्यक्त्व नाही होय || णी
तात गुरु-उपदेश धारने की शक्ति चाहिये।२। आगे समय-समय परिणामन की अनन्तगुणी विशुद्धता होई
होय। तपनालको चलब्धि
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