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पंचद तो अजीव ज्ञेय के हैं सो आपतें मित्र ही हैं। तातें हेय हैं तजने योग्य हैं और जीव है सो अनन्त हैं अपनेअपने द्रव्य गुण पर्याय सत्ता प्रदेश जुदे-जुदे लिये हैं। तातैं अपनी आत्मसत्ता बिना अनन्त परजीवसत्ता परज्ञेय सो तजने योग्य है और ज्ञान के जानपने में आये स्वात्मा के अनन्तगुरा सो स्वय हैं उपादेय हैं। अङ्गीकार करने योग्य हैं और भी परज्ञ य के अनेक भेद हैं सो व्यवहारनय करि केतीक तो आत्मा को इष्ट सुखकारी उपादेय हैं और केतीक आत्मा कूं अनिष्ट दुखकारी सो हेय हैं। सो आत्मा को संसारविषै परज्ञ य में ममत्व करि भ्रमण करतें अनन्तानन्त परावर्तन काल भये । परावर्तन कहा, सो ही कहिये हैं-
गाया --- दव्य खेका भय भावो, पाथतं पण अन्त कम जादा । भवमन्ते पण लडी, भव्वो पय मोल होम एव काले ॥ ३ ॥ अर्थ- परावर्तन के पाँच मैद हैं द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भयपरावर्तन, भावपरावर्तन, अब इनका समान्य अर्थ लिखिये हैं। प्रथम ही द्रव्यपरावर्तनके सामान्य भावको सुनौ द्रव्य परावर्तन ताकूं कहिये है जो पुद्गलपरमाणु जीवने रागद्वेष भाव करि एक-एक परमाणु अनन्त अनन्त बार ग्रहीत जरु छोड़े। भावार्थ- जो परमाणु अङ्गीकार करि छोड़े सो अब येही परमाणु जब ग्रहेगा, तब दूसरी बार गिनती में आवेगा । सो ऐसे एक-एक परमाणु जनन्त-जनन्त बार ग्रहीते अरु छोड़े। भावार्थ – जो परमाणु अङ्गीकार करि छोड़े सो जब येही परमाणु जब ग्रहैगा, तब दूसरी बार गिनती में आवेगा । सो ऐसे एक-एक परमाणु अनन्त- अनन्त बार छोड़े और ग्रहे । एक परमाणु ग्रह के तजे पोछें, अनन्तकाल गये उस ही परमाणु ग्रहिये का निमित्त मिला, फेरि तजि फेरि अनन्तकाल गये उसही परमाणु ग्रहिये का निमित्त पाया। ऐसे करते जीवरासित अनन्ते पुद्गलपरमाणु अनन्तानन्त बार ग्रहे अरु छोड़े, सो एक-एक बार छोड़े पीछे मिलते अनन्तकाल लागें तो ऐसे ही अनन्तपरमाशु ग्रह ततें जो काल लागै सो द्रव्यपरावर्तन है। तथा याही का दूसरा नाम पुद्गलपरावर्तन है। सो याका काल केवलज्ञान गम्य अनन्तकाल है । इति द्रव्य परावर्तन
आगे क्षेत्र परावर्तन का स्वरूप कहिये है जो सर्वलोक के मध्यप्रदेश हैं गिनिये सो जीव लोक के मध्यप्रदेश आकाश विषै उपजिमूवा और फेरि और और क्षेत्र में उपज्या मूवा सो नहीं गिना । ऐसे जन्म-मरण करते अनन्तकाल या तब कोई कर्म जोगतें उसको आकाशप्रदेश विषै भूवा जन्म्या, तौ भी नहीं गिन्या । पीछे कैरि
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