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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ २० ॥
१स्थानाध्ययने आत्म
सिद्धिः २ सूत्रम्,
आत्मा मृत्त सिद्ध थाय छे, माटे 'भोग्यत्व' हेतु, साध्य जे अमूर्त आत्मा ते भोग्यत्वथी विरुद्ध हेवार्थी साध्यविरुद्ध छे. समाधान-ए तमारुं कथन योग्य नथी. संसारी जीवने मूर्तपणे पण स्वीकारेल होवाथी भोग्यत्व हेतु साध्यविरुद्ध नथी. भाष्यकार कहे छे के:जो कत्तादि स जीवो, सज्झविरुद्ध(द्धो)त्ति ते मई हज्जा।मुत्ताइपसंगाओ,तं नो संसारिणो दोसो॥४५॥
आ गाथानो भावार्थ उपर कहल छ. लिंग अने लिंगी( हेतु ने पक्ष )ना साक्षात् संबंधना देखवावडे अनुमाननी प्रवृत्ति थाय छ, ए तमारूं कहे, अयोग्य छ कारण के ए हेतु अनैकान्तिक दोषवाळो छे. लिंगी साथे व्याप्तिवाळो जे लिंग तेना उपलंभना अभाववडे अनुमाननीज एकांतथी अप्रवृत्ति छे. हास्य, रुदन वगेरे लिंग (हेतु) विशेष जे, ग्रहाख्य लिंगी पिशाचादि )ना व्याप्ति ज्ञान विना पण पिशाचादिनु अनुमान करावे छे. जो तमे एम कहेशो के देह ए ज पिशाच छे, परन्तु तेम नथी कारण के व्याप्ति ज्ञानना नियामकी ज्यां ज्यां देह छे त्यां त्यां पिशाचर्नु दर्शन थq जोईए पण बीजाना देहमां पिशाच देखातो नथी. वली भाष्यकार कहे छे के:सोऽणेगंतो जम्हा, लिंगेहि समं अदिट्रपुव्वोवि। गहलिंगदरिसणातो, गहोऽणुमेयो सरीरंमि ॥४६॥ लिंगो( हास्यादि चिह्नो )बडे पूर्व नहि जोयेल जे पिशाच तेना हास्यादि चिह्नोवडे आ शरीरमां पिशाच छे एम अनु१. आत्मा आठ कर्म अने शरोर सहित होवाथी कथंचित-सापेक्षताप मूर्त पण छे.
॥२०॥
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