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* चेव'त्ति-शठपणुं छे निमित्त जे कर्मबंध क्रियानु अथवा जे व्यापारनुं ते मायाप्रत्यया, 'मिच्छादसणवत्तिया चेव'त्तिमिथ्यात्व छे निमित्त जे (क्रियानु) ते मिथ्यादर्शनप्रत्यया. (१६). मायाप्रत्यया चे प्रकारे-'आयभावबंकणया चेव'त्तिअप्रशस्त आत्मभावनुं जे वक्रीकरण-प्रशस्तपणानुं देखाडवं ते आत्मभाववंकनता क्रिया, वंकन( वांकाइ )ना बहुपणानी विवक्षामां (तल्रूप) भाव प्रत्यय विरुध्ध नथी. ते वंकनता, व्यापाररूप होवाथी क्रिया छे, तथा 'परभाववंकणया चेव'त्ति-जूठा लेख करवा वगेरेथी बीजाना अभिप्रायने ठगवा रूप क्रिया ते परभाववंकनता, कारण के वृद्धव्याख्या आवी छे-"तं तं भावमायरह जेण परो वंचिजइ कूडलेहकरणाईहिं'त्ति (१७), बीजी पण बे प्रकारे-ऊणाइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेवत्तिआत्मादि वस्तुना प्रमाणथी हीन अथवा अधिक कहेवारूप जे मिथ्यादर्शन, ते ज छे निमित्त जे क्रियानुं ते ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया, ते आ प्रमाणे-शरीर व्यापक आत्मा छे, तो पण आत्माने कोईपण मिथ्यादृष्टि, अंगुष्ठ पर्व मात्र [ यवमात्र ] अथवा श्यामाक नामा चोखामात्र एम हीनपणाए माने छे. वळी अन्य कोइक पांचशे धनुष्य प्रमाण अथवा सर्वव्यापक छ एम अधिकपणाए स्वीकारे छे, तथा 'तव्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव'त्ति-ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनथी भिन्न जे मिथ्यादर्शन-आत्मा नथी इत्यादि मतरूप निमित्त छ जे क्रियानुं ते तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया. (१८). वळी बीजी रीते वे क्रिया छे-'दिहिया चेय'त्ति-दृष्टिथी थयेली ते दृष्टिजा अथवा दर्शन (जोवु) अथवा वस्तु, निमित्तपणे छे जे क्रियामां ते दृष्टिका-जोवा माटे जे गतिक्रिया. अथवा जोवाथी जे कर्म उत्पन्न थाय छे ते दृष्टिजा अथवा दृष्टिका क्रिया, तथा 'पुट्ठिया चेव'त्ति-पृष्टि-पूछवाथी थयेली ते पृष्टिजा-प्रश्नथी उत्पन्न थयेल व्यापार, अथवा पृष्ट-प्रश्न अथवा वस्तु ते छे
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