Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya
Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri
Publisher: Abhaydevsuri
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बंध थाय छे, ते आ-रागथी अने द्वेषथी. जीवाने वे स्थानकद्वारा पापकर्मनी उदीरणा थाय छे, ते आ-अभ्युपगमिकी- स्वयं शिरोलोचनादिवडे स्वीकारेल वेदना, अने औपक्रमिकी - ताव, अतिसारादिवडे उदीरणा थयेली वेदना. एवी रीते वे प्रकारे वेदे अर्थात् उदयमां आवेलुं कर्म भोगवे, वे प्रकारे निर्जरे-क्षय करे, ते अ प्रमाणे - अभ्युपगमिकी वेदनावडे निज्जैरे अने औपक्रमिक वेदनावडे निर्जरे ( सू० ९६ )
टीकार्थ :- प्रेम - राग, माया अने लोभरूप कषायलक्षण, अने द्वेष तो क्रोध अने मानरूप कपायलक्षण छे, जे माटे कहे छे के माया लोभकषाय- श्वेत्येतद् रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ॥ १ ॥ प्रेम-प्रेमलक्षण चित्तनो विकार उत्पन्न करनार मोहनीय कर्मना पुद्गलनी राशिनुं बंधन छे जीवना प्रदेशोने विषे योगप्रत्यय ( निमित्त ) थी प्रकृतिरूपपणे अने प्रदेशरूपपणे संबंध थाय छे तथा कषायना प्रत्ययथी स्थिति अने अनुभाग (रस) रूप विशेषनुं प्राप्त थबुं ते प्रेमबंध. एवी रीते द्वेषमोहनीय कर्मनो बंध ते द्वेपबंध छे. कं छे के"जोगा पयडिपदेसं, ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ "न्ति० प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंध योगथी अने स्थितिबंध तथा अनुभागबंध कपायथी करे छे. प्रेम अने द्वेष लक्षणरूप उदयमां आवेल कर्मोवडे जीवोने अशुभ कर्मनो बंध थाय छे,
१. उदयमां नहि प्राप्त थयेल कर्मने आकर्षीने उदयमां लाववा ते उदीरणा कहेवाय, ते जीवनावीर्यवडे थाय छे अने उदय स्वयं अबाधाकाल पूर्ण थये आवे छे.
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