Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya
Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri
Publisher: Abhaydevsuri
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करनारने अथवा पराक्रम न करनारने, अहित-अपथ्य माटे, असुख-दुःख माटे, अक्षम असंगतपणा माटे, अनि:श्रेयस - अमोक्ष माटे अने अननुगामिकत्व - अशुभता अनुबंधने माटे थाय छे. 'से णं' ति० जेने त्रण स्थानको अहितादिपणा माटे थाय छे, ते शंकित - देशथी अथवा सर्वथी संशयवाळो, तेमज कांक्षित-मतांतरने पण सारापणाए माननार, विचिकित्सफल प्रत्ये शंकायुक्त, आ कारणथी ज भेदसमापन्न- द्विधाभावने पामेलो, अर्थात् 'आ एम छे के नहिं' एवी मतिवाळो, कलुषसमापन्न-'आम नथी ज' एम स्वीकारनारो, आ कारणथी ज-निर्ग्रथो संबंधी जे आ ते नैग्रंथ, प्रशस्त प्रगत युक्त अथवा प्रथम एवं जे वचन ते प्रवचन -आगम. ( अहि मूलमां दीर्घपणुं प्राकृतपणाने अंगे छे.) सामान्यथी श्रद्धा करतो नथी, प्रीति करतो नथी, करवानी इच्छावाळी थतो नथी. 'त' मिति० जे आवी स्थितिवाळो छे ते साधुना आभास वाळा प्रत्ये, सर्वथा | जे सहन कराय छे ते क्षुधा विगेरे परीषहो, तेना संबंधमां आवीने अथवा परस्पर स्पर्द्धा करीने पराजय करे छे-तिरस्कार करे छे. बाकीनुं सुगम छे. ३, कट्टेल सूत्रधी विपरीत सूत्र पूर्ववत् जाणवुं हित- पोताने अने बजाने आ लोक अने परलोकमां, पथ्य अन्नना भोजननी जेम, दोष नहिं करनार, सुख - तृषातुरने शीतळ जळपाननी जेम आनंदरूप, क्षम- तथाप्रकारना व्याधिने नाश करनार औषध पीवानी जेम योग्य, निःश्रेयस - भावथी पंचपरमेष्ठीने नमस्कार करवानी जेम चोकस कल्याण अर्थात् प्रशंसा लायक, अनुगामिक- प्रकाशवाळा द्रव्यथी थयेल छायानी माफक साथे साथे चालवाना स्वभावरूप (सू० २२३) आवा प्रकारनो साधु आ पृथ्वीमां ज होय छे, आ अर्थरूप संबंधवडे पृथ्वीना स्वरूपने कहे छे:एगमेगा णं पुढवी तिहिं वलएहिं सव्वओ समता संपरिक्खिता,
तं०-घणोद
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