Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya
Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri
Publisher: Abhaydevsuri

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Page 349
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (KKKKKKKXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxx * ते अवधिजिन, एम बीजा बे मनःपर्यायजिन अने केवग्ज्ञानजिन पण जाणवा. विशेष ए के-पहेला बे भेद उपचार करायेल छ अने हेल्लो भेद उपचार रहित छ (वास्तविक छ ). उपचारनुं कारण तो प्रत्यक्ष ज्ञानीपणुं छे. 'केवलम् ' एक, अनंत अथवा पूर्ण ज्ञानादि छे जेओने ते केवलीओ कडेवाय. कयु छे केकसिणं केवलकप्पं, लोगं जाणंति तह य पासंति। केवलचरित्तणाणी, तम्हा ते केवली होति ॥२२॥ समग्र, अनंत अथवा परिपूर्ण लोकने जाणे छे तथा देख छ, वळी एक ज यथाख्यात चारित्र अने केवळज्ञान छ जेने ते केवलचारित्रज्ञानी, ते कारणथी केवली होय छे. अहिं पण जिननी माफक व्याख्या करवी. देवादिवडे करायेल पूजाने जे योग्य छ ते अहंतो अथवा कई पण छार्नु नथी जेओने ते अरहस, शेष पूर्वनी माफक जाणवू. आ जिन विगरे लेश्या सहित पण होय छे माटे लेश्या-प्रकरणने कहे छे ततो लेसाओ दुब्भिगंधाओ पं० त०-कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा १, तओ लेसाओ सुब्भिगंधातो पं० तं-तेऊ. पम्ह० सुक्कलेसा २, एवं दोग्गतिगामिणीओ ३, सोगतिगामिणीओ ४, संकिलिट्ठाओ ५, असंकिलिट्ठाओ ६, अमणुन्नाओ७, मणुन्नाओ ८, अविसुद्धाओ ९, विसुद्धाओ १०, अप्पसत्थाओ ११, पसत्थाओ १२, सीतलुक्खाओ १३, णि ण्हाओ १४ । XKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal use only

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