Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya
Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri
Publisher: Abhaydevsuri
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ३१७ ॥
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क्रियारूप अने बन्ने (ज्ञान - क्रिया )ने विषे एकांतिक अने आत्यंतिक ( अतिशय ) सुखना सफल उपायवडे उपचार रहित धर्म सुगतिने विषे धारण करवाथी ज धर्म कहेवाय छे, आवश्यकमां कह्युं छे के
नाणं पयासयं सोहओ, तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिव्हंपि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥
ज्ञान प्रकाशक एटले स्वरूपने बतावनार छे, तप - कर्मरूप कचराने शोधनार छे अने संयम गुप्तिकर - नविन कर्मने अटकावनार छे. जे आत्रणेनो समायोग-मिलाप तेने जिनशासनमां मोक्ष कहेल छे ( ' णंकार' वाक्यना अलंकारमां छे.) सारी रीते करेलुं तप ते चारित्र कहां, अने ते प्राणातिपात विगेरेथी विशेष विरतिस्वरूप छे माटे हवे विरतिना भेदोने कहे छे
तिविधा वावत्ती पं० तं० - जाणू अजाणू वितिगिच्छा, एवमज्झोववज्जणा परियावज्जणा । सू० २१८, तिविधे अंते पं० तं०-लोगंते वेयंते समयंते । सू० २१९, ततो जिणा पं० तं० - ओहिणाणजिणे मणपजवणाण जिणे केवलणाण जिणे १, ततो केवली पं० तं०- ओहिनाणकेवली मणपज्जवनाणकेवली केवलनाणकेवल २, तओ अरहा पं० तं०- ओहिनाणअरहा मणपज्जवनाणअरहा केवलनाणअरहा ३ । सू० २२०
मूलार्थ:-त्रण प्रकारे व्यावृत्ति - हिंसादिकनी निवृत्ति कहेली छे, ते आ प्रमाणे जाणू-हिंसादिना फलने दुःखदायक जाणीने तेथी निवर्त्तेते, अजाणु - हिंसादिना स्वरूपने समज्या सिवाय तेथी निवत्ते ते, विचिकित्सा - हिंसादिकथी अशुभ फळ थशे
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४
अवधजि
नादिस्व
रूपम्
२१८
२२०
सूत्राणि
।। ३१७ ॥

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