Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya
Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri
Publisher: Abhaydevsuri

View full book text
Previous | Next

Page 339
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org छे. (०२१२) हमणां ज चक्षुवाळानुं वर्णन कर्यु, तेने अभिसमागम - वस्तुनुं जाणवुं थाय छे ते हेतुथी तेने दिशाना भेदवडे विभाग करता थका कहे छे-'तिविहे' इत्यादि० "अभि" - अर्थने सन्मुखपणाए परंतु विपर्यास - विपरीतपणाए नहि, "सम्”यथार्थ, परंतु संशयपणाए नहिं, तथा 'आ' - मर्यादावडे गमन- जाणवुं ते अभिसमागम अर्थात् वस्तुनुं ज्ञान. अहिं ज (दिशामां) ज्ञानना भेदने कहे छे- 'जया ण' मित्यादि० 'अइसेस' ति० शेष- बाकीना छद्मस्थ ज्ञानोनुं उल्लंघन करनारुं अतिशेष, ते ज्ञान दर्शन परमावधिरूप जणाय छे-घटी शके छे, कारण के केवलज्ञाननो ऊर्ध्वादिक्रमवडे उपयोग न होय, जेन लईने तत्प्रथमतयेत्यादि० सूत्र निर्दोष थाय. परमावधिवाळाना उत्पन्न थयेल ज्ञानादिनी प्रथमता, ते प्रथमपणामां 'उनि ऊर्ध्वलोकने जाणे छे, त्यापछी तिच्छलोकने अने त्यारबाद त्रीजा स्थानमां अधोलोकने जाणे छे. एवी रीते सामर्थ्यथी प्राप्त थयेल अधोलोक दुःखपूर्वक क्रमेवडे छेवटमां जाणवा योग्य होवाथी जाणी शकाय तेम छे. हे आयुष्मन् श्रमण ! आ शिष्यने आमंत्रणरूप छे. (२१३) हमणा अभिसमागम कह्यो, ते ज्ञान अने ज्ञान ऋद्धिरूप अहिं ज कहेवामां आवतुं होवाथी ऋद्धिना समानपणाथी तेनाभेदोने कहे छे तिविहाइड्डी पं० तं०-देवड्डी राइड्डी गणिड्डी १, देविड्डी तिविहा पं० तं०- विमाणिड्डी विगुव्वणिड्डी परियाणिड्डी २, अहवा देविड्डी तिविहा पं० तं०- सचिता अचित्ता मीसिता ३, राइड्डी तिविधा १. अहि क्रमशः ऊर्ध्वलोकादिनुं जाणवानुं कहेलुं छे तनुं कारण ए के क्षायोपशमिक ज्ञान होय छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** *****

Loading...

Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377