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श्रीस्थानङ्गसूत्र
सानुवाद ।। ३१४ ।।
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पं० नं० - रन्नो अतियाणिड्डी रन्नो निज्जाणिड्डी रण्णो वलत्राहणकोसकोट्ठागारिड्डी ४, अहवा रातिड्डी तिविहा पं० तं०- सचित्ता अचित्ता मीसिता ५, गणिड्डी तिविहा पं० तं०-णाणिड्डी दंसणड्डी चरित्तिड्डी ६, अहवा गणिड्डी तिविहा पं० तं० - सचित्ता अचित्ता मीसिया ७ । सू० २१४
मूलार्थ:-त्रण प्रकारे ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणे - देवर्द्धि-इंद्रादिकनी ऋद्धि, राजर्द्धि-चक्रवर्ती विगेरेनी ऋद्धि, गणर्द्धिआचार्य विगेरेनी ऋद्धि १, देवर्द्धि त्रण प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- त्रिमाननी ऋद्धि, विकुर्वणानी ऋद्धि अने परिचारणाविषयसेवानी ऋद्धि २, अथवा देवर्द्धि त्रण प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे सचित्त- पोतानुं शरीर अने अग्रमहिषीनुं शरीर विगेरे, अचित्त-वस्त्राभूषण विगेरे, मिश्र-भूपण सहित देवी विगेरे ३, राजानी ऋद्धि त्रण प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे - राजानी अतियान ऋद्धि-नगरप्रवेश करवामां तोरण विगेरेनी शोभारूप, राजानी निर्यान ऋद्धि-नगरथी नीकळवा वखते हाथी, घोडा विगेरेनी शोभारूफ, राजानी बल (सेना), वाहन, भंडार अने कोठाररूप ऋद्धि ४, अथवा त्रण प्रकारे राजानी ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणे- सचित्त-स्वशरीर अने धान्य विगेरे, अचित्त-धन अने दागीना विगेरे, मिश्र-वस्त्रादियुक्त स्वशरीर विगेरे ५, त्रण प्रकारे गणिनी ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानऋद्धि-विशिष्ट श्रुतसंपत्ति दर्शनऋद्धि-निःशंकितपणादि समकितनी ऋद्धि अने चारित्रऋद्धि-निरतिचार महाव्रतादि ६, अथवा त्रण प्रकारे गणि-आचार्यनी ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणेसचित्त-शिष्यादि, अचित्त-वस्त्र विगेरे अने मिश्र - उपधि सहित शिष्यादि ७, (सू० २१४)
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३ स्थानकाध्ययन
उद्देशः ४
देवराज
गणिऋद्धि
वर्णनम्
२१४ सूत्रम्
॥ ३९४ ॥