Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya
Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri
Publisher: Abhaydevsuri
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श्रीस्थानाङ्गपत्र सानुवाद
| प्रशस्त अथवा अत्यंत पर्यवसान-छेवट अर्थात् समाधिमरणथी एटले के फरीने मरण न करवाथी छेडो छे जे जीवने ते |
३ स्थानमहापर्यवसान. 'एवं समणसा'त्ति० एवी रीते जणावेल त्रण लक्षण छ. स इति-साधु, 'मणस' ति.
काध्ययन मनवडे, (प्राकृतशलीथी इसपणुं छे ) एवी रीते स 'वयसत्ति० वचनवडे अने स 'कायसत्ति० कायावडे एबो अर्थ छे.
उद्देश अहिं 'कायसा' ए शब्दमां सकारनो आगम प्राकृतपणाथी ज छे. त्रणे करणोवडे ए अर्थ छे. अथवा स्व (पोताना) मनवडे विचारणा करतो थको, कोईक प्रतमां तो 'पागडेमाणे' एवो पाठ छे त्यां प्रगट करतो थको एवो अर्थ जाणवो. जेम साधुने म्वरूपम् | कह्या तेम श्रावकने पण निर्जरादिनां त्रण कारणो (मनोरथो )छ,ए बतावतां थका कहे छ-'तिहीं'त्यादि० सुगम छे.(सू० २१०) ४२११-१३ अनंतरकर्मनी निर्जरा कही, ते पुद्गलना परिणामविशेषरूप छे माटे पुद्गलना परिणामविशेषने कहेवा माटे सूत्रकार कहे छे- सत्राणि तिविहे पोग्गलपडिघाते पं० २०-परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहन्निज्जा लक्खत्ताते वा पडिहणिजा लोगते वा पडिहन्निजा।सू०२११, तिविहे चक्खू पं० २०-एगचक्खू बिचक्खू तिचक्खू, छउमत्थेणं मणुस्से एगचवखू देवे बिचक्खू तहारवेसमणे वा माहणे वा उप्पन्ननाणदंसणधरे से णं तिचक्रवृति वनव्वं सिया। सू०२१२, तिविधेअभिसमागमे पं० तं-उर्दु अहं तिरियं, जयाणंतहारूवस्स समणस्स वा माणस्स वा अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पज्जति से णं तप्पढमताते उडमभिसमेति
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