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दक्षे होय छे. जिन एटले गच्छथी नीकल साधुविशेषो, तेओना कल्पनी स्थिति ते जिनकल्पस्थिति. ते आवी रीते-जघन्यथी पण नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तुनो अभ्यास छते, उत्कृष्टथी तो दश पूर्व कईक न्यून होते छते, प्रथम संहनन छते, तथा दिव्यादि उपसर्ग अने रोगनी वेदनाने जे सही शके छे ते जिनकल्प स्वीकारे छे. ते एकाकी ज होय छे. दश गुणयुक्त स्थंडिलमांज उच्चारादि अने जीर्ण वस्त्रादिने त्यजे छे, एने वसति सर्व उपाधि रहित विशुद्ध होय छे, भिक्षाचर्या त्रीजी पोरसीमां होय छे, पाछली पांच पिंडैषणामां एक ज (अभिग्रह करेली) कल्पे छे, विहार मासकल्पवडे, ते ज वीर्थामां (शेरीमा) छठे दिने भिक्षाटन होय छे-आ प्रमाणे आ मर्यादा 'सुयसंघयणे' त्यादिकाद् गाथाना समूहथी कल्प(भाष्य)मां कहेल छे त्यांची जाणवी. कयुं छे केगच्छम्मिय निम्माया,धीरा जाहे य गहियपरमत्था। अग्गहि जोगअभिग्गहि,उति जिणकप्पियचरितं॥
गच्छमां निर्माता-क्रियाशिक्षादिकमां निपुण, बुद्धिमान् अथवा परिषहादिकमां निश्चल तथा ग्रहण करेल परमार्थवाला अने अग्राह्या एटले बे पिंडैषणा नहिं ग्रहण करवा लायक अने शेष पांच पिंटषणा संबंधी बेना योगमां बेनी मध्ये एकनोज योग
१. परिहारविशुद्धिकोनो नव व्यक्तिनो गण होय छे. तेमां चार तप करनारा, चार वयावृत्य करनारा अने एक वाचनाचार्य होय छे. तेवी रीते छ मास पर्यन्त तप कर्या बाद जे चार जणा वैयावृत्य करनारा होय छे ते तप करे अने तप करनारा वैयावच करे एम छ मास कर्या पछो वाचनाचार्य तप करे अने शेष आठ वैयावृत्य करे. आवी रीते अढार मास सुधी आ तप चाले छे.
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