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बे शरीर कट्टेल छे, ते आ-अभ्यंतर अने बाह्य अभ्यंतर ते कार्मण शरीर, बाह्य ते अस्थि (हाडका), मांस अने रुधिरवडे जोडायेल औदारिक शरीर, एवी रीते यावत् चतुरिंद्रियोने वे शरीर जाणवा. पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकोने वे शरीर का छे, ते आ-अभ्यंतर अने बाह्य, अभ्यंतर ते कार्मण अने बाह्य ते अस्थि, मांस, शोणित, स्नायु ( नाडी), शिरा ( नसो ) थी जोडाल दारिक शरीर. मनुष्याने पण एवी रीते बे शरीरो जागवा (२), विग्रह (वक्र) गतिने प्राप्त थयेला नैरयिकोने वे शरीर का छे, ते आ--तेजस अने कार्मण. एवी रीते आंतरा रहित (सर्व दंडकमा ) या वैमानिकाने वे शरीर जाणवा. नैरयिको वे स्थान(कारण )वडे शरीरनी उत्पत्तिनो प्रारंभ करे छे, ते आ-राग अने द्वेषथी, यावत् वैमानिकना दंडक पर्यंत एम ज जाणवुं. नैरयिकोने वे स्थानवडे शरीरनी निर्वर्तना-परिपूर्णता थाय छे, ते आ प्रमाणे-रागवडे निर्वर्तना अने द्वेषवडे निर्वर्तना कराय छे, यावत् वैमानिक दंडक पर्यंत एम ज जाणवुं. वे काय (राशि ) कहेल छे, ते आ-त्रसकाय अने स्थावर काय त्रसकाय बे प्रकारे कल छे, ते आ-भवसिद्धिक अने अभवसिद्धिक. तेवी ज रीते स्थावरकायना पण भव्य अने अभव्य वे भेद जाणवा (३) (सू० ७५ )
टीकार्थ :- 'रइयाणमित्यादि प्रायः सुगम छे, विशेष कहे छे शीर्यते प्रत्येक क्षणे चय(वृद्धि) अने अपचय (हानि)वडे नाश पामे छे ते शरीर, तेमज सडवा वगेरेना स्वभाव वडे अनुकंपनपणुं होवाथी शरीर. जिनेश्वरोए ते शरीर वे प्रकारनां कहेल छे, ते प्रमाणे अभ्यंतर तथा बाह्य अभ्यंतर-मध्यमां थयेलं ते अभ्यंतर. आ शरीरनुं अभ्यंतरपणुं जीवना प्रदेशो साथै क्षीरनीरना न्यायएकीभूत थवाथी अने भवांतरमां गये छते पण जीवनी साथे गतिमां तेनुं मुख्यपणुं होवाथी तेमज घर वगेरेनी अंदरमा रहेल
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