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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥११५॥
लक्षण जन्मना बे प्रकार छ तेथी आ विलक्षण ( जुर्दु ) जन्मविशेष छे. दीव्यन्ति इति देवाः-दीपे छे ते देवो. चार निकायना देवो अने पूर्वनी माफक कहेल नारकोनो ज उपपात-उपजर्बु थाय छे. (१), उद्वर्त्तवं ते उद्वर्त्तना अर्थात् देवादिनां शरीरथी नीकळवु-मरण जाणवू. ते नैरयिको अने भवनवासी देवोने ज ए प्रमाणे व्यपदेश कराय छे कारण के मनुष्यादिने तो मरण ज कहेवाय छे. नारकोनी तथा भवनोने विषे-अधोलोकमा रहेला देवोना आवास विशेषोमा बसवानो स्वभाव छे जेओनो ते भवनवासीओनी उद्वर्त्तना छे. (२), ज्योतिष्को अने वैमानिकोनु मरण ते च्यवन कहेवाय छे. ज्योतिष्षु-नक्षत्रोमा उत्पन्न थयेल ते ज्योतिष्को. आ प्रमाणे शब्दव्युत्पत्ति छ, पण प्रवृत्तिना निमित्तनो आश्रय करवाथी तो ज्योतिष्को चंद्र वगेरे छे. ऊर्ध्वलोकमां वर्तनारा-विमानोमा उत्पन्न थनारा सौधर्मादिवासी देवो, ते वैमानिको. ते बन्नेनु (मरण) च्यवन कहेवाय छे. (३), गर्भगर्भाशयमा जे उत्पत्ति ते गर्भव्युत्क्रांति, मनुना अपत्यो संतानो ते मनुष्यो तेओनी अने जे तिर्छा जाय छे ते तिर्यचो, तेओना |* संबंधवाळी योनि-उत्पत्तिनुं स्थान छे जेओने ते तिर्यचयोनिकोनी गर्भव्युत्क्रांति थाय छे. ते तिर्यंचयोनिको एकेंद्रिय वगेरे पण होय छे, माटे विशेषणविशिष्ट कहे छे के-पंचेंद्रियविशिष्ट तिर्यंचयोनिकोनी गर्भथी उत्पत्ति होय छे. (४), गर्भमां रहेला बन्ने( मनुष्य-तिर्यच )ने आहार होय छे, बीजा ( देव-नारक )ने गर्भनो ज अभाव होय छे. (५), वृद्धि-शरीरनुं वधQ.
। भवनवासो शब्दथी व्यतरोनु पण ग्रहण थाय छे, कारण के तेओना नगरी पण अधोलोकमां छे. अहिं वे स्थानकनो अधिकार होवाथी व्यंतरनो अंतर्भाव करेल छे.
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ उपपातोद्: वर्तनच्य
वनादिः ८५ सूत्रम्
क्रांति, मनुना अपत्यायोनिकोनी गर्भव्युत्क्रमकानी गर्भथी उत्पा
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॥ ११५॥
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