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भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥९९॥
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चार, ते समस्त ज्योतिश्चक्र क्षेत्र छे. कारण ? मात्र व्युत्पत्त्यर्थनी अपेक्षा करीने शब्दनी प्रवृत्तिना निमित्तनो आश्रय करवाथी, 13 २ स्थानतेमां उत्पन्न थयेला ते चारोपपन्नको-ज्योतिष्को छे. पादपोपगमन बगेरे करवाथी ज्योतिष्कपणु प्राप्त न थाय एम न कहे, कारण के काध्ययने परिणामविशेषथी तेम पण थाय छे. ज्योतिष्को पण बे प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-चार-ज्योतिश्चक्र क्षेत्रमा जेओनी स्थिरता छे ते उद्देशः २ चारस्थितिको, ते समयक्षेत्र(अढीद्वीप)थी बहार रहेनारा घंटानी आकृतिवाळा छे. तथा गमनमा जेओने रति छे ते गतिरतिको
तत्रान्यत्रसमयक्षेत्रमा वर्तनारा छे. गतिरतिको सतत (निरंतर) गति नहि करनारा पण होय छे, आ कारणथी गति-गमनने समिति
कर्मवेदनं निरंतर आपन्नकाः-प्राप्त थयेला ते गतिसमापन्नको-विराम नहि पामनारा छे. पूर्वोक्त चार प्रकारना देवोने निरंतर जे
७७ सूत्रम् पापकर्म-ज्ञानावरणादि, जीवोने निरंतर बंधकपणुं होवाथी श्रियते-बंधाय छे (आ कर्मकर्तृप्रयोग छे), ते देवो कर्मना | अबाधाकालनु उल्लंघन थये छते 'तत्थगयावि' त्ति. 'अपि' अव्यय एवकार ( चोकस ) अर्थमां छे, तेनो प्रयोग आवी रीते-तत्रैव-देवोना भवमा ज, कल्पातीत देवोनो बीजा क्षेत्रमा गमननो असंभव होवाथी अहिं तत्र अने अन्यत्र शब्दवडे भव ज अर्थ विवक्षित-इच्छित छे; परंतु क्षेत्र, शयन अने आसनादि विवक्षित नथी, माटे देवभवमा वर्तनारा केटलाएक देवो, वेदना-उदयरूप विपाक(फळ)ने अनुभवे छे. 'अन्नत्थगयावि' त्ति० देवभवथी बीजा ज भवांतरमा उत्पन्न थयेलाओ बेदनाने अनुभवे छे. केटलाएक तो आ भव अने परभवमां पण वेदनाने अनुभवे छे. बीजा केटलाएक जीवो विपाकोदयनी अपेक्षाए आ भवमा अने परभवमां पण वेदनाने अनुभवता नथी, आ बे विकल्प सूत्रमा जणावेल नथी, कारण के बे स्थानकनो अधिकार चालु छे (१), सूत्रमा कहेल बे विकल्प, सर्व जीवोमा चोवीश दंडकवडे प्ररूपणा करता थका कहे छे:- ।।। ९९ ॥
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