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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥९५॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ शरीरस्व
रूपम् ७५ सूत्रम्
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पुरुषनी जेम अनतिशय-ज्ञानवाळाने अप्रत्यक्षपणुं होवाथी आभ्यंतरपणुं छे. तथा बाहेरमां थयेलं ते बाह्य. एर्नु बाह्यपणुं तो जीवना प्रदेशोवडे कोईपण शरीरना केटलाएक अवयवोने विषे अव्याप्तपणु होवाथी अने भवांतरमा साथे न जवाथी अतिशयज्ञान वगरना जीवोने पण प्राय प्रत्यक्ष होवाथी ते बाह्य शरीर छे. 'कम्मए'त्ति०अभ्यंतर कार्मणशरीरनामकर्मना उदयथी थवा योग्य सघळा कर्मोनी उत्पन्न थवानी भूमि-आधाररूप छे. तथा संसारी जीवोने बीजी गतिने विषे जवामां अतिशय सहायक ते शरीर कार्मणवर्गणास्वरूप छे, कर्म ए ज कर्मक-कार्मण छे. कार्मण शब्दनुं ग्रहण करवामां तैजसशरीर पण ग्रहण करायेल छ एम समजी लेबु, कारण के कार्मण अने तैजस एकना विना बाजुं होतुं नथी अर्थात् ते बन्ने सदा साथे रहे छे माटे एकपणानी विवक्षा करी छे. ' एवं देवाणं भाणियब्वं'त्ति जेम नैरायकोने बे शरीर कार्मण अने वैक्रिय कहेल छे तेम असुरकुमार देवोथी आरंभीने वैमानिक पर्यंत देवोने वे शरीर होय छे. कार्मण अने वैक्रिय शरीरनो तेओने सद्भाव होय छे. अहीं चोवीश दंडकोनी विवक्षा होवाथी शेष दंडको कहे छे. 'पृढवी' त्यादि० पृथ्वी वगेरे पांच दंडकोमा तो बाह्यऔदारिकशरीरनामकर्मना उदयथी उदार पुद्गलोवडे थयेलु औदारिक शरीर छे, मात्र एकेन्द्रियोनुं शरीर हाडकां वगेरेथी रहित होय छे. वायुकायिकोर्नु जे वैक्रियशरीर ते मायिक होवाथी अहिं वैक्रियनी विवक्षा करी नथी. (१), 'बेइंदियाणमित्यादि. हाडका, मांस अने रुधिरवडे बंधायेलं जे शरीर ते बाह्य शरीर छे. बेइंद्रियोना औदारिकपणामां पण शरीरना हाडका बगेरे
१. एक नारकनो दंडक अने देवोना १३ दडकमां वे शरीर कार्मण अने बैंक्रिय होय छे. शेष पृथ्वी वगेरे १० दंडकमा कामण अने औदारिक शरीर होय छे.
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