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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८५॥
स्थानका
ध्ययने उद्देशः१
प्रत्यक्षपरोक्षज्ञानम् ७१ सूत्रम्
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नेंद्रियो प्राप्त थयेल अर्थने जाणे छ अर्थात् श्रोत्रादि ए चारे इंद्रियो प्राप्यकारी छे. शंका-व्यंजनावग्रह, ज्ञान न कहेवाय; कारण के श्रोत्रादि इंद्रिय अने शब्दादि द्रव्यनो संबंधकाळ होवा छतां पण बहेरानी जेम व्यंजनावग्रहना अनुभवनो अभाव छ, समाधान-तमे कहो छो एम नथी. व्यंजनावग्रह ने अंते ते वस्तुना ग्रहणथी ज (ज्ञानात्मक अर्थावग्रहना) साक्षात्कारना सद्भावथी अहिं जे ज्ञेय वस्तुना ग्रहणना अंतमां, तेथी ज ज्ञेय वस्तुना उपादान-ग्रहणथी साक्षात्कार थाय छे ते ज्ञान छे. जेम अर्थावग्रह पछी अर्थावग्रहवडे ग्रहण करवा योग्य (ज्ञेय) वस्तुना ग्रहणथी इहा थाय छे तेथी ते अर्थावग्रहज्ञान छे. तेवी ज रीते व्यंजनावग्रह पछी तद्ज्ञेय वस्तुना उपादानथी अर्थावग्रह ज्ञान थाय छे, माटे व्यंजनावग्रह ज्ञान छे पण अज्ञान नथी. भाष्यकार कहे छे
अन्नाणं सो बहिराइणं व, तक्कालमणुवलंभाओ।
[आचार्यः ] न तदन्ते तत्तोच्चिय, उवलंभाओ तयं नाणं ॥१९॥ आ गाथानो भावार्थ कहेलो छे. वळी व्यंजनावग्रह कालमां पण ज्ञान छ ज, परंतु सूक्ष्म होइने अव्यक्त होवाथी सूतेला माणसना अस्पष्ट ज्ञाननी माफक साक्षात् जणातुं नथी. इहा वगेरे पण श्रुतनिश्रित ज छे छतां ते कहेल नथी, कारण के द्विस्थानकबे स्थानकनो अनुरोध छे. (१९), 'अस्सुयनिस्सिएवि एमेव' ति अर्थावग्रह अने व्यंजनावग्रहना भेदवडे अश्रुतनिश्रित पण वे प्रकारे छे. आ श्रोत्रंद्रिय वगेरेथी थयेलं जाणवू. जे औत्पत्तिकी आदि बुद्धि अश्रुतनिश्रित छे तेमां अर्थावग्रह संभवे छे. भाष्यकार कहे छ:
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॥८५॥
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