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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८२॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः१
प्रत्यक्ष
परोक्षज्ञानम् ७१ मूत्रम्
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चेव (२२), आवस्सयवतिरित्ते दुविहे पं० तं०-कालिए चेव उक्कालिए चेव २३ । सू० ७१
मूलार्थः चे प्रकारे ज्ञान कयुं छे, ते आ प्रमाणे-प्रत्यक्ष ज्ञान अने परोक्ष ज्ञान (१), प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रकारे कयुं छे, ते आ प्रमाणे-केवलज्ञान अने नोकेवलज्ञान (२), केवलज्ञान वे प्रकारे कयु छ, ते आ प्रमाणे भवस्थकेवलज्ञान अने सिद्धकेवलज्ञान (३), भवस्थकेवलज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान अने अयोगिभवस्थकेवलज्ञान (४), सयोगिभवस्थकेवलज्ञान के प्रकारे कडु छे, ते आ-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान अने अप्रथमसमयसयोगीभवस्थकेवलज्ञान (५), अथवा चरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान अने अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान (६), एवी रीते अयोगिभवस्थकेवलज्ञानना पण बे भेदो जाणवा (७-८), सिद्धकेवलज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-अनंतर (आंतरा रहित) सिद्धकेवलज्ञान अने परंपरसिद्ध केवलज्ञान (९), अनंतरसिद्धकेवलज्ञान के प्रकारे कह्यु छ, ते आ-एकअनंतरसिद्धकेवलज्ञान अने अनेकअनंतरसिदकेवलज्ञान (१०), परंपरसिद्ध केवलज्ञान वे प्रकारे छे, ते आ-एकपरंपरसिद्धकेवलज्ञान अने अनेकपरंपरसिद्धकेवलज्ञान (११), नोकेवलज्ञान के प्रकारे कयुं छे, ते आ प्रमाणे-अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञान (१२), अवधिज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आभवप्रत्ययिक अने क्षायोपशमिक (१३), भवप्रत्ययिकअवधिज्ञान बेने होय छे, ते आ प्रमाणे-देवोने अने नैरयिकोने (१४), क्षायोपशमिक अवधिज्ञान बेने होय छे, ते आ-मनुष्योने अने पंचेंद्रिय तिथंच योनिकोने (१५), मनःपर्यवज्ञान वे प्रकारे कयुं छे, ते आ-ऋजुमति अने विपुलमति (१६), परोक्ष ज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-आभिनियोधिक (मति)ज्ञान अने श्रुतज्ञान (१७), आभिनिबोधिक ज्ञान के प्रकारे कयु छे, ते आ-श्रुतनिश्रित अने अश्रुतनिश्रित (१८), श्रुतनिश्रितमतिज्ञान के प्रकारे
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