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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ७४ ॥
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ज्ञान ज एक कारण छे; क्रिया कारण नथी, जेथी ज्ञाननुं फळ ज क्रिया छे" तेम कहेवुं अयुक्त छे; कारण के जे ज्ञानथी ज क्रिया थाय छे ते क्रियाथी इष्ट फळनी प्राप्ति थाय छे, आ कारणथी ज बने (ज्ञान-क्रिया) पण अमे इच्छीए छीए, जो एम नहि मानो तो ज्ञाननुं फळ क्रिया (जे तमे कहेल ) छे ते क्रियानी कल्पना निष्फळ थशे अने क्रिया रहित ज्ञान ज कार्यने सिद्ध करे, परंतु फक्त ज्ञान कार्यनुं साधक थतुं नथी, कारण के तमोए क्रियानो स्वीकार करेल छे. ज्ञान अने क्रियाना स्वीकारमां ज्ञान परंपराए उपकार करे छे अने क्रिया अनंतर उपकार करे छे. क्रिया अनंतर उपकार करे छे तेथी क्रिया प्रधानतर कारण योग्य छे, पण अप्रधान अने अकारण नथी, अने बन्ने एकी साथे उपकार करे छे तेथी बन्ने प्रधान कारण कहेवा योग्य छे. तथा क्रियानुं अप्रधानपणुं अने अकारणपणुं कहेवुं योग्य नथी. वळी जे वादी क्रियानुं अकारणपणुं स्वीकारे छे ते वादी प्रत्ये आ विशेषपणे कहेवाय छे-क्रिया ज साक्षात् कार्यनी करनारी होवाथी अंत्य कारण छे, ज्ञान तो परंपराए उपकारी होवाथी अनंत्य कारण छे. आथी अहिं कयो हेतु छे जे अंत्य कारण छोडीने तमे अनंत्य कारणने इच्छो छो ? वळी जो ज्ञान-क्रियानुं सहचारीपणुं अंगीकार करो छो तो आ कारणथी पण ज्ञान ज कारण छे, क्रिया नथी आ ( कथन ) मां हेतु नथी. वळी जे तमे कहुँ के-बोधकालेऽपीत्यादि-तेमां ज्ञेयनुं जाणवुं ते ज्ञान ज, अने जे रागादिनो उपशम ते संयम क्रिया ज छे, अने ते ज्ञानरूप कारणथी थाय एम अमो पण स्वीकारीए छीए, परंतु भवना वियोगना कथनरूप ज्ञान-क्रियाना फळमां आ नीचेनो विचार (विवाद ) प्राप्त थाय छे के भववियोगरूप फल ते शुं ज्ञाननुं ? क्रियानुं ? अथवा बन्नेनुं छे ? तेमां ज्ञाननुं ज फल नथी, कारण के ज्ञाननुं फल क्रिया छे. बळी केवल क्रियानुं पण फळ नथी; कारण के गांडानी क्रिया माफक ते क्रिया मात्र छे. आ कारणथी छेवटना
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२स्थानकाध्ययने
उद्देशः १
ज्ञानक्रिया
साध्यो
मोक्षः
६२-६३
सूत्रे
॥ ७४ ॥