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श्रीस्थानान
सानुवाद ॥ ७५ ॥
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शंका — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए रत्नत्रय मोक्षनो मार्ग छे, एम (शास्त्रमां ) संभळाय छे. अहिं तो ज्ञान ने क्रियावडे मोक्षमार्ग कयो छे तो विरोध केम न थाय ? वे स्थानकना अनुरोधथी आवी रीते कथन कर्ये छते पण विरोध नथी एम कहेवुं पण योग्य नथी; कारण के ' विजाए चेव चरणेण चेव ' आ निर्देश ( कथन ) निश्चयगर्भित छे. समाधान -विद्या- ज्ञानना ग्रहणवडे दर्शन- सम्यक्त्व पण अविरुद्ध जाणवुं, कारण के ज्ञाननो भेद होवाथी सम्यग्दर्शननुं पण ग्रहण समज. जेवी रीते अवबोधात्मक ज्ञान छते मतिने आकाररहितपणुं होवाथी अवग्रह अने इहा ए बन्ने दर्शन छे, तथा मतिने साकारपणुं होवाथी अपाय अने धारणा ए बन्नेने ज्ञान कहेल छे. एवी रीते व्यापारवाळं ज्ञान छते जे अपायनो रुचिरूप अंश सम्यग्दर्शन छे ते अवगम-ज्ञाननो बोधरूप अंश ते अवाय ज छे माटे विरोध नथी. सूत्रमां अवधारणात्मक ( एव शब्द ) तो ज्ञानदर्शनचारित्र सिवाय भवना व्यवच्छेद ( नाश )नो अन्य कोई उपाय नथी एम बताववा माटे छे. (सू० ६३) ज्ञान अने चारित्रने आत्मा केम प्राप्त नथी करतो, आ हेतुथी ' दो ठाणाइ ' मित्यादि अगियार सूत्रो कहे छेः
दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं० - आरंभे चैव परिग्गहे व १, दो ठाणाई अपरियादित्ता आया णो केवलं बोधिं बुज्झेज्जा तं० - आरंभे चैव परिग्गहे चेव २, दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया नो केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारिय पव्वज्जा तं० - आरंभे चैव परिग्गहे चैत्र ३, एवं णो केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा ४, णो
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२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः १
आरंभपरि
ग्रहात्यागे
न धर्मश्रव
णादिज्ञानान्तं
६४ सूत्रम्
।। ७५ ।।