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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ६९ ॥
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'त्ति - बीजाना हाथथी स्वदेह अने परदेहने परिताप करावता थकां जे थयेली क्रिया ते परहस्तपारितापनिकी. (९) वली वे क्रिया कहे छे- 'पाणाइवायकिरिया चेव'त्ति-आनो अर्थ सुगम छे, तथा 'अपच्चक्खाणकिरिया चैव'त्ति-अप्रत्याख्यानअविरतिना निमित्तथी थयेल जे कर्मबंध ते अप्रत्याख्यान क्रिया, ते अविरतिओने होय छे. (१०). प्राणातिपात किया वे प्रकारे--'सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव' त्ति-निर्वेद (कंटाळा) वगेरेथी पोताना प्राणोने पोताना हाथे अथवा क्रोधादिवडे पारकाना प्राणोने नाश करनारनी जे क्रिया ते स्वहस्तप्राणातिपात क्रिया, तथा 'परहत्थपाणाइवायकिरिया चैव 'प्ति - बीजाना हाथे पोताना अथवा परना प्राणोने नाश करावनारनी जे क्रिया ते परहस्तप्राणातिपात क्रिया. (११). बीजी अप्रत्याख्यान क्रिया पण प्रकारे छे - 'जीव अपच्चक्खाणकिरिया चेव' त्ति - जीवना विषयमां प्रत्याख्याननो अभाव ( न करवा) वडे जे बंध वगेरेनी | प्रवृत्ति ते जीव अप्रत्याख्यान क्रिया तथा 'अजीव अपच्चक्खाणकिरिया चेव' त्ति - अजीवो-मद्यादि विषे अर्थात् तेना पच्चखाण न करवाथी जे कर्मनो बंध ते अजीव अप्रत्याख्यान क्रिया. (१२). बळी बीजी रीते वे क्रिया कहेली छे 'आरंभिया चेव' त्ति- आरंभ ते आरंभ, तेमां थयेली जे क्रिया ते आरंभिकी क्रिया, तथा 'परिग्गहिया चेव' त्ति-परिग्रहने विषे जे थयेली क्रिया ते पारिग्रहिकी. (१३). आरंभिकी वे प्रकारे छे-'जीवआरंभिया चेव' त्ति-जीवोना उपमर्दन करनारने जे कर्मबंधन ते जीवआरंभिकी क्रिया, तथा 'अजीवारंभिया चेव'त्ति - अजीवोने, जीवोना कलेवरोने, पिष्ट (लोट) वगेरेथी बनावेली जीवती आकृतिओने अथवा वस्त्रादि प्रत्ये आरंभ करनारनी जे क्रिया ते अजीवआरंभिकी, (१४), 'पारिग्गहिया चेव'त्ति-आ पारिग्रहिकी क्रिया आरंभिकी क्रियानी जेम वे प्रकारे जाणवी, कारण के ते क्रिया जीवपरिग्रह अने अजीवपरिग्रहथी थाय छे. (१५). वळी बीजी रीते वे क्रिया 'मायावतिया
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२स्थानका
ध्ययने
क्रियाणां
द्वैविध्यम्
५८-६० सूत्राणि
॥ ६९ ॥