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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। ६८ ।।
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सम्यक्त्व ते ज जीवन। व्यापाररूप होवाथी जे क्रिया ते सम्यक्त्व क्रिया, एम ज मिथ्यात्व क्रिया पण जाणवी. बळी विशेष कहे छे:मिथ्यात्व एटले तचनुं अश्रद्धान ते पण जीवनो व्यापार ज छे, अथवा सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शन छते जे वे क्रिया थाय छे ते सम्यक्त्व क्रिया अने मिथ्यात्व क्रिया कहेवाय छे. (२). 'अजीवकिरिये ' त्यादि-तेमां 'इरियावाहिय' त्ति-ईरणमी - गमन कर - ते गमनविशिष्ट मार्ग ते इर्यापथ, तेमां थयेली जे क्रिया ते ऐर्यापथिकी. आ व्युत्पत्ति मात्र अर्थ छे. प्रवृ तिनुं निमित्त तो केवल योगप्रत्यय छे. ते उपशांतमोहादि त्रण गुणठाणावाळाने सातावेदनीय कर्मपणाए अजीवरूप पुद्गलराशिनुं जे थवं ते ऐर्यापथिकी क्रिया जाणवी. प्रस्तुत विषयमां जीवना व्यापारमां पण अजीवना मुख्यपणानी विवक्षावडे आ अजीव क्रिया कहेली छे. अथवा कर्म विशेषरूप ऐर्यापथिकी क्रिया कहेवाय छे, जेथी कहेलुं छे - "इरियावहिया किरिया दुबिहाबज्झमाणा वेइज्जमाणा य, जा[व] पढमसमये बद्धा बीयसमये वेइआ सा वृद्धा पुट्ठा वेइया णिजिष्णा सेयकाले अम्मं वावि भवतीति- इर्यापथिकी क्रिया वे प्रकारे छे. बध्यमान ( बंधाती ) अने वेद्यमान (वेदाती). जे प्रथम समये बंधायेली अने बीजे समये वेदायेली, बंधायेली स्पृष्टा (क्रिया) भोगवायेली, निर्जरायेली ( स्पर्शाली उदयमां आवेली ) ते भविष्यकालमा ( चतुर्थादि समयमां) अकर्म पण थाय छे. तथा संपरायाः - कषायोमां थयेली ते सांपरायिकी क्रिया. ते ज अ| जीवरूप पुद्गलराशिनी कर्मपणाए परिणतिरूप जीवव्यापारनी विवक्षा न करवाथी अजीवक्रिया छे. ते पहेला गुणठाणाथी यावत् सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकवाळा जीवने होय छे. (३), 'दो किरिये' त्यादि-वळी बीजी रीते वे क्रिया छे-'काइया चैवतिकायावडे थयेली ते कायिकी - कायानो व्यापार तथा ' अहिगरणिया चेव'त्ति - जेवडे आत्मा नरकादिने विषे अधिकारी
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२स्थानकाध्ययने
क्रियाणां
द्वैविध्यं
५८-६० सूत्राणि
॥ ६८ ॥