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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४९॥
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जे एवा उत्कृष्ट पापना फलने भोगवनारा होय ते सर्वथा प्रकारे दुःखी ज होवा जोईए. जेवू दुःख नरकभूमिमां प्रसिद्ध छे तेवु | ४१ स्थाना
दुःख तिर्यंच अने मनुष्योने होतुं नथी. देवना उत्कृष्ट सुखनी माफक तिर्यच अने मनुष्योने जेम उत्कृष्ट सुख नथी तेम दुःख ध्ययने ४ पण उत्कृष्ट नथी. (८५-८६) शंका-देवोर्नु पण विवादास्पद होवाथी, अर्थात् देवो छे के नहिं ए संदेह होवाथी 'विशिष्ट नारकX देवजन्मना कारणभूत प्रकृष्ट पुन्य फलवत् ' एम सिद्धान्तीए आपेलं जे दृष्टांत ते असिद्ध छे. समाधान-अर्थसहित 'देव' देवसिद्धिः पद शुद् पैद होवाथी घट नामनी जेम व्युत्पत्तिवाछं छे. ते कारणथी देवो छे एम प्रतीति करवी जोईए. वळी पूर्वपक्षी शंका करे
५१ सूत्रम् छे के-दिव्य गुणसंपन्न गणधरादि अने ऋद्धिसंपन्न चक्रवर्त्यादि मनुष्यवडे व्युत्पत्त्यर्थवाडं देवपद सार्थक थशे, पण तमने जे देवनो अर्थ विवक्षित छे ते देवपदनी सिद्धि नहिं थाय. समाधान-जो के कोईक मनुष्य विशेषमा आ देवपणुं कहेवाय छे ते पण औपचारिक छे अने सत्य अर्थनी सिद्धि छते उपचार थाय छे. जेम स्वाभाविक सिंहनो सद्भाव (अस्तित्व ) छते 'माणवक'ने विषे सिंहनो उपचार कराय छे तेम हि जाणवू, भाष्यकार कहे छे:देवत्तिसत्थयमिदं, सुद्धत्तणओ घडाभिहाणंव।अह व मती मणुओ च्चिय, देवो गुणरिद्धिसंपन्नो ।८७। तं न जओ तच्चत्थे, सिद्धे उवयारओमया सिद्धी। तच्चत्थसीह सिद्धे, माणव सीहोवयारोव्वा८८ा युग्मम् *
आ वे गाथानो भावार्थ उपर आवी गयेल छे. वळी१. समास अने तद्धितरहित जे पद ते शुद्ध पद, केवल क्रियापदथो बनेलं होय ते.
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