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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। ६४ ।।
(C)
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मूलार्थ:-जे आ लोकने विषे जीवादि वस्तु छे ते सर्व वे प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे जीव अनं अजीव. जीवना बे प्रकार छे - १ त्रस अने थावर, २ सयोनिक – संसारी अने अयोनिक -सिद्ध, ३ आयुष्य सहित अने आयुष्य रहित, ४ इंद्रियसहित अने अनिंद्रिय (इंद्रिय रहित), ५ वेदस-वेद सहित अने वेद रहित, ६ रूपी-मूर्त्त (आकार सहित ) अने अरूपी - अमूर्त (आकार रहित), ७ पुद्गल सहित अने पुद्गल रहित, ८ संसारमा रहेला अने संसारमां नहिं रहेल, ९ शाश्वत अने अशाश्वत एम बच्चे प्रकारे जीवो छे. ( सू० ५७ )
टीकार्थ :- आ सूत्रनो पूर्व सूत्रनी साथ आ प्रमाणे संबंध छे-पूर्व कहेतुं छे के एकगुण लूखा पुद्गलो अनंत छे, ते पुद्गलोमां अनेकगुण लूखा पुद्गलो पण होय छे, जेने लइने ते पुद्गलो एकगुण रुक्षपणाए विशेष कराय छे? हा, होय छे. जे माटे 'जदत्थी' त्यादि. हवे परंपरसूत्रन संबंध तो 'श्रुतं मयाऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमेक आत्मे' त्यादि-तेम आ बीजुं अध्ययन पण कधुं छे. 'जदत्थी' त्यादि संहितादिनी चर्चा पूर्वनी जेम जाणवी. जे जीवादि वस्तु विद्यमान छे. 'णं' कार वाक्यना अलंकारमां छे. 'जदत्थि चणं' ति आवो पाठ पण क्यांक छे. ते सूत्रमां अनुस्वार आगमथी धयेल छे अने चकार पुनः अर्थमा छे. आ जीवादि वस्तुनो आ प्रमाणे प्रयोग छे-आत्मादि वस्तु छे, प्रथमना अध्ययनवडे कहेवायेल होवाथी पंचास्तिकायात्मक लोकमां, अथवा लोक्यते -[ केवळज्ञानवडे ] जे प्रमाण कराय-जणाय ते लोक, आ व्युत्पत्तिवडे लोक अने अलोकरूपमा जे वस्तु छे ते सर्व वस्तु वे पद-स्थानमां तथा विवक्षित वस्तु अने तेथी विपरीत लक्षणरूप वे पक्षमां अवतार (समावेश) थाय छे जेना ते द्विपदावतार छे. 'दुपडोयारं' ति आ पाठ क्यांक बोलाय छे त्यांचे पक्षमां प्रत्यवतार छे जेनो ते
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२ स्थानका
ध्ययने
जीवानां
द्वैविष्यं
५७ सूत्रम्
॥ ६४ ॥