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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ५६ ॥
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आनुलोम्य, 'हेतु अने तत्स्वभावपणाए जे आ भावतीने करे छे अने प्रकाशे छे ते हित करनारा तीर्थंकरो छे. तीर्थकरो था थका जे सिद्धो थाय छे ते ऋषभादिनी माफक तीर्थंकरसिद्धो कहेवाय छे. तेओनी वर्गणा एक छे (३). अतीर्थंकरसिद्धो-सामान्य केवलीओ थया थका जे सिद्वो थाय छे ते गौतमादिनी जेम अतीर्थंकरसिद्ध छे. तेओनी वर्गणा एक छे (४). स्वयं-आत्मवडे ( पोतानी मेळे ) बुद्धो-तचना जाणनारा जे स्वयंबुद्धो धया थका सिद्ध थाय ते स्वयंबुद्धो. तेओनी वर्गणा एक छे (५), अनित्यतादि भावनाओनो निमित्तभूत कोई पण एक पदार्थने आश्रयीने जोड़ने परमार्थ जाणनारा ते प्रत्येकबुद्धी थया थका सिद्धो थाय छे ते प्रत्येकबुद्ध छे. तेओनी वर्गणा एक छे (६). स्वयंवुद्ध अने प्रत्येकबुद्धोनो भेद बोधि, उपाधि, श्रुत ने लंगडे कराल छे, ते आ प्रमाणेः-स्त्रयंबुद्धाने बाह्य निमित्त विना ज बोधि प्राप्त थाय छे. प्रत्येकबुद्धीने बाह्य निमित्तनी अपेक्षाए करकंडु विगेरेनी जेम बोधि प्राप्त थाय छे. स्त्रयंबुद्धोने पात्रादि बार प्रकार उपधि होय छे. ते आ प्रमाणेपत्तं १ पत्ताबंधो २, पायठवणं ३ च पायकेसरिया ४ ।
पडलाइ ५ यत्ताणं ६ च, गोच्छओ ७ पायनिज्जोगो ॥ १११ ॥
तिन्नेव य पच्छागा १०, रयहरणं ११ चेव होइ मुहपोत्ति १२ ।
१. बाल वगेरे अने स्थविरादिने अनुरूप जे देशना ते आनुलोभ्य तोथेनी स्थापनामा स्वयं हेतुभूत छे तेथी हेतु अने तीर्थंकरनामकर्मना उदयथी भाव अनुकंपा ते तत्स्वभाव,
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११. स्थाना
ध्ययने सिद्धभेदाः १५
५१ सूत्रम्
॥ ५६ ॥