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श्रीस्थानासूत्र
१ स्थाना
ध्ययने ४ एकयोगता
सानुवाद
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कारण के ते प्रतिज्ञार्थी आत्मा क्लेश पामे छे. धर्मप्रतिज्ञा एक छे, कारण के ते प्रतिज्ञाथी आत्मा पर्यवजात-ज्ञानादि पर्यववाळो थाय छे. देव, असुर अने मनुष्योने ते ते समयमां मनः एक छे. [देवादिने ते समयमां वचन एक छे, देवादिने ते ते समयमां कायव्यापार एक छे. ]' उत्थान, कर्म, बल, वीय, पुरुषकार अने पराक्रम देव, असुर अने मनुष्याने ते ते समयमां एक छे. ज्ञान एक, दर्शन एक अने चारित्र एक छे.
टीकार्थ:-'एगे जीवे' एकः-केवळ जीव्यो, जीवे छे अने जीवशे ते जीव-प्राण धारण स्वभाववाळो ते आत्मा, एक जीव प्रत्ये प्रत्येकशरीरनामकर्मना उदयथी प्राप्त थयेलु जे शरीर ते प्रत्येक दीर्घ वगेरे प्राकृत शैलीथी प्रत्येकक. ते प्रत्येकवडे 'शीर्यत इति' शरीरं-जीरण थाय छे ते शरीर-देह, ते ज अनुकंपित बगेरे स्वभाव सहित शरीरक. तेनावडे जणातो-प्रत्येक शरीरने आश्रित जीव एक छे. अथवा वे 'णकार' वाक्यालंकारना अर्थवाळा छे, तेथी प्रत्येकक शरीरमा जीव एक वर्ते छे-रहे छे एवो वाक्यार्थ थाय, अहिं 'पडिक्वएणं'त्ति एवो पाठ क्यांक देखाय छे. आनो अर्थ न समजायाथी ते पाठनी व्याख्या करी नथी. अहिं वाचनाओर्नु चोक्कसपणुं न होवाथी वधी वाचनाओनी व्याख्या करवाने अशक्य होवाथी अमे कोईक ज वाचनानुं व्याख्यान करशु. बंध, मोक्ष वगेरे आत्माना धर्मो हमणां ज पूर्व कहेला छे. ते अधिकारथी ज आथी आगळ आत्माना धर्मोंने एगा जीवाणं (सू०१८) इत्यादि मूत्रवडे पगे चरित्ते (सू०४३) आ अंत्य सूत्रबडे कहे छे:'एगा जीवाणं'-आ सुगम छे. 'अपरियाइतत्ति' जीवोने विकुर्वणा एक छे. ते विकुर्वणा वैक्रिय समुद्घातबडे क्यांयथी पण बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या विना भवधारणीय वैकिय शरीरनी रचनालक्षणवाळी स्व स्व उत्पत्तिस्थानमां जीवोबडे जे
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