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१ स्थानाध्ययने
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३९॥
ज्ञानादि
निरूपणा * ४३ मूत्रम्
ज्ञायन्ते-जेनावडे, जेनाथी अने जेमां अर्थो जणाय छ, निर्णय थाय छे ते ज्ञान. ज्ञान-दर्शननो क्षय अथवा क्षयोपशम अथवा जे जाणवु ते ज्ञान, ज्ञानावरण अने दर्शनावरणना क्षयादिथी प्रगट थयेल आत्मानो पर्याय विशेष, सामान्य विशेषात्मक वस्तुमा विशेषांश ग्रहण करवामां चतुर अने सामान्य अंशनो ग्राहक, पांच ज्ञान, त्रण अज्ञान अने चार दर्शनरूप ते अनेक छ तो पण बोधना समानपणाथी अथवा उपयोगनी अपेक्षाए एक छे. ते आ प्रमाणे-लब्धिथी घणा वोधविशेषोनो एक समये संभव छते पण उपयोगथी एक ज संभवे छे, कारण के जीवोनुं उपयोगपणुं एक छे. शंका-दर्शननुं ज्ञानमां कथनपणुं अयुक्त छे, कारण के ( बन्नेनो) विपयभेद छे. कयु छ के-"जं सामन्नग्गहणं, दंसणमेयं विससियं नाणं" ति,-जे सामान्य स्वरूपर्नु ग्रहण ते दर्शन, अने तेना विशेप स्वरूपनुं ग्रहण ते ज्ञान छे. समाधान-सामान्य ग्राहक होबाथी इहा अने अवग्रहरूप ज दर्शन छे. अने विशेष ग्राहकपणाथी अपाय तथा धारणारूप ज्ञान छ, अथवा आगममां दर्शन अने ज्ञान बन्ने पण ज्ञानना स्वीकारवडे ग्रहण करेल छे. 'आभिनिबोहियनाणे, अट्ठावीसं हवंति पयडीउ' वचनथी आभिनिबोधिक (मति )ज्ञानमां अठावीस प्रकृतिओ (मतिज्ञानना भेदो) होय छे, माटे सामान्यथी दर्शन पण ज्ञानरूप कहेवामां विरोध नथी. शंका-आ पछीना सूत्रमा दर्शन जुर्नु ज कहेलुं छे, तो अहीं ज्ञान शब्दवडे दर्शन पण केम कथन कर्यु ? समाधान-ते उत्तरसूत्रमा दर्शन-श्रद्धाना अर्थमा विवक्षित छे. ज्ञानादि त्रणने सम्यक् शब्दबडे युक्त कर्ये छते, मोक्षमार्ग पण विवक्षित होवाथी श्रद्धानरूप पर्यायवडे ज दर्शननी साथ आ त्रण (ज्ञानादि) मोक्षना मार्गभूत छे. 'एगे दंसणे' त्ति दृश्यन्ते-जेनावडे, जेनाथी अथवा जेनामां पदार्थो श्रद्धारूप थाय छे. दर्शन दर्शनमोहनीय कर्मनो क्षय, क्षयोपशम अथवा
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