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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। ४४ ।।
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प्राकृतपणुं होवाथी मायामोष कहेवाय छे. एमां घे दोषनो योग छे. वळी आ मानमृषादि, संयोगदोपना उपलक्षणरूप छे. कोइक एम कहे छे के वेषांतर. भिन्न भिन्न रूप करवावडे लोकोने ठगर्नु ते मायामृषा, प्रेम वगेरे विषयना भेदवडे अथवा अध्यबसायस्थानांना भेदथी पण अनेक प्रकारे छे. (१७). मिथ्यादर्शन-विपरीत दृष्टि, ते ज तोमर वगेरेना शल्यनी जेम दुःखनो हेतु होवाथी शल्य ते मिथ्यादर्शन शल्य, मिथ्यादर्शन १. अभिग्रहिक, २. अनभिग्रहिक, ३. अभिनिवेशिक, ४. अनाभोगिक अने ५. सांशयिक भेदी पांच प्रकारे छे. अथवा उपाधिना भेदी अधिकतर भेद पण छे. (१८). आ प्राणातिपातादि अढार पापस्थानोनुं उक्त क्रमव डे अनेकपर्णु छते पण वध वगेरेना साम्यथी एकपणुं जाणवुं. ( सू० ४८ ) अढार पापस्थानको कह्यां. ये 'एगे पाणाइवायवेरमणे' इत्यादि अठार सूत्रोवडे तेना विपक्षोना एकपणाने कहे छे. आ सूत्रो सुगम छे. विरमण ते विरति तथा विवेक ते त्याग (सू०४९). हमणा पुद्गल सहित जीवद्रव्यना धर्माना एकपणुं जे करूं ते कालना स्थितिरूपपणाए, कारण के काल तेनो धर्म छे. कालना विशेषणाने 'एगा ओसप्पिणी ' आदि सूत्रथी आरंभीने 'सुसमसुसमा ' छेल्ला सूत्रवडे कालं स्वरूप कहे छे:
एगा ओसप्पिणी, एगा मुसमसुसमा जाव एगा दुसमदुसमा । एगा उस्सपिणी एगा दुस्समदुस्समा जाव एगा सुसमसुसमा । सू० ५०
१. मानमृषा, क्रोधमृषा बगेरे उपलक्षणयो मायामृषामां अंतर्भूत छे. २. मंथ-दंडाकार.
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१ स्थान:ध्ययने अबसर्पिणाद्याः
काल
स्वरूपम् ५० सूत्रम
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