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(उपशम)रूप दर्शन छे. अथवा दृष्टि दर्शन ते दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयादिवडे प्रगट थयेल तत्चना श्रद्धानरूप आत्मानो परिणाम छे. ते उपाधि भेदथी अनेक प्रकारे छे तो पण श्रद्धानना समानपणाथी एक छे. अथवा एक जीवने एक समये एकनो ज भाव होय छे. शंका-अवबोधनुं समानपणुं होबाथी ज्ञान अने सम्यक्त्वमांशु विशेष छे ? समाधान-सम्यक्त्व ते रुचि अने रुचिर्नु कारण तो ज्ञान छ. [ अर्थात् कारणकार्यकृत भेद छे. ] कहेलुं छे के:नाणमवायधिईओ, दंसणमिटुं जहोग्गहेहाओ। तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥ ८१ ॥
जेम अवाय अने धारणरूप ज्ञान, अवग्रह अने इहारूप दर्शन इच्छित छे, तेम तत्त्वरूचिरूप सम्यक्त्व छे, अने जेनावडे रुचि थाय छे ते ज्ञान कहेवाय छे (८०) 'चरित्ते'त्ति चर्यते-मोक्षाभिलापी जीवोबडे विधिपूर्वक सेवाय छे ते चारित्र अथवा चर्यते-जेनावडे निवृति(मोक्ष)मां जवाय छे, अथवा कर्मोना संचयने शून्य (खाली) करवू. आ निरुक्त न्यायथी, चारित्रमोहनीय कर्मना क्षयादिथी प्रगट थयेल आत्मानो विरतिरूप परिणाम ते चारित्र. ते आगळ कहेवामां आवनारा सामायिकादि चारित्रना भेदोनुं विरतिरूप सामान्यमा अंतर्भाव थवाथी अथवा एक जीवने एक समये एक चारित्रनो ज सद्भाव होवाथी चारित्र एक छे. आ ज्ञानादिनो आ प्रमाणे क्रमले, कारण के कह्यु छ के-जे जाणेलुं नथी ते श्रद्धानरूप थतुं नथी, जे श्रद्धानरूप थयुं नथी तेनुं सम्यगाचरण करातुं नथी. (सू०४३) ज्ञान वगेरे उत्पत्ति, नाश अने स्थितिवाळां छे अने स्थिति,
१. ज्ञान कारण छे अने दर्शन ( सकित ) कार्य छे.
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