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निर्विशेषं गृहीताश्च भेदाः सामान्यमुच्यते । ततो विशेषात्सामान्य- विशिष्टत्वं न युज्यते ॥ ५४ ॥ वैषम्यसमभावेन, ज्ञायमाना इमे किल । प्रकल्पयन्ति सामान्य- विशेषस्थितिमात्मनि ॥ ५५ ॥
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तेज कारणथी ज सामान्य रूपवडे आत्मा एक छे अने विशेष रूपवडे अनेक छे. व्यतिरेकधी एक आत्माना अभाववडे शेष ( अनेक ) आत्माओने अनात्मापणानो प्रसंग आववाथी आत्माओनुं तुल्य रूप नथी, एम कहेवुं नहिं; कारण के तुल्य रूप उपयोग ले - 'उपयोगलक्षणो जीव' इति वचनात् उपयोगरूप एक लक्षणपर्णु होवाथी सर्व आत्माओ एक रूपवाळा छे. एवी रीते एक लक्षण होवाथी एक आत्मा छे अथवा जन्म, मरण अने सुखदुःखादिना संवेदनो ( भोगववामां ) कोइ पण | अन्य सहायक नहि होवाथी एक आत्मा छे एम भाव अहिं सर्व सूत्रानेविषे कथंचित् ( कोइक अपेक्षा) नुं स्मरण कर. अविरोध कथंचित्वादने सर्व वस्तुनी व्यवस्थानुं निबंधन होवाथी. कयुं छे के स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं | विना सकलाः क्रियाः लोकद्वितयभाविन्यो, नैव सात्यमिति ॥ १॥ ते स्याद्वादने नमस्कार थाओ के जे स्याद्वाद विना
लोकमां नारी सर्व क्रियाओ योग्य संगतिने पामती नथी. तथा-नयास्तव स्यात्पदसत्त्वाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमायाः प्रणता हितैषिणः || २ || रसवडे सिद्ध करेल लोह धातुओनी जेम स्यात्पदरूप सच्चवडे लांञ्छित तमारा नयो ( नैगमादि ) छे, जेथी इच्छित फळने आपनारा थाय छे, तेथी १ आ वे लोकोनो भावार्थ उपरोक्त छे.
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