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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। २२ ।।
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सामान्य, विशेषोथी भिन्न छे के अभिन्न ? ते साक्षात् जणातो न होवाथी भिन्न नहि थाय, केमके साक्षात नहि देखाती वस्तुनो विद्यमानता (सत्ता) वडे व्यवहार करवाने शक्य नथी. जो अविद्यमान वस्तुनो पण व्यवहार स्वीकारशो तो गधेडाना शींगडानो पण प्रसंग आवी जाय. अथवा जो अभिन्न पक्ष ( सामान्य विशेषोथी अभिन्न ) स्वीकारशो तो वे सामान्य मात्र छे के विशेष मात्र छे ? जो सामान्य मात्र होय तो एक (आत्मा) ने विषे सामान्य एक होय नहि, कारण के सामान्य एक थयाथी संकीर्ण व्यवस्था थशे. जेम घटमां घटत्व सामान्य छे पण कंबू, ग्रीवादि विशेषनी प्रतीति थशे नहि. जो विशेष मात्र स्वीकारशो तो विशेषो अनेक रूप छे तेथी संकीर्ण व्यवस्था थवा नहि पामे, तेम एक आत्माने विषे आत्मत्व सामान्य छे अने दुःखसुखादि विशेष छे; माटे सामान्य स्वीकार थवाथी दुःखसुखादिनी प्रतीति थशे नहि. अहिं टीकाकार कहे छे—अमारावडे सामान्य अने विशेषनो एकांतथी भेद-अभेद स्वीकार करायेल नथी परंतु असदृश रूप मुख्यताए अने सदृश रूप गौणताए लड्ने विषमतावडे जाता विशेषो ज, विशेष रूपे कहेवाय छे. ते ज विशेषो, अतुल्य रूप गौण करीने अने तुल्य रूप मुख्य करीने समपणे जणाता सामान्य रूप कहेवाय छे. कं छे केः
१. ब्राह्मण क्षत्रियादि जातिविशेषमां मनुष्यमां मनुष्यत्वरूप सामान्यने गौण करी अने क्षत्रियादिनी अपेक्षाए ब्राह्मणने मुख्य करीने विशेषनो व्यवहार कराय छे. २ ब्राह्मण क्षत्रियादि जातिविशेषने गौण करी अने मनुष्यत्वरूप सामान्यने मुख्य करी अर्थात् सर्व मनुष्यो सरखा छे एम सामान्य व्यवहार कराय छे.
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१ स्थाना
ध्ययने
एकात्मनि
सामान्यविशेषवादः
॥ २२ ॥