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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ २१ ॥
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आ गाथानो अर्थ कल छे. ' प्रतिक्षणं क्षयिणो भावा ' इति आ वचनथी तमारा प्रतिपाद्य विषयनुं जे क्षणभंगुररूप विज्ञान उत्पन्न थाय छे ते क्षणिक विज्ञान वाक्यार्थ ग्रहण परिणामथी असंख्यात समयोवडे ज थाय छे. दरेक समयमां बोलनारनो नाश थये छते क्षणिक विज्ञान ज तमे कही शको तेम नथी. जे कारणथी पद संबंधी एक एक अक्षर पण असंख्यात समयमा उत्पन्न थाय छे. संख्यात अक्षरवाळु पद छे, संख्यात पदवाळं वाक्य छे; माटे तेना अर्थना ग्रहण परिणामथी समयमां ज नाश पामेल बक्तानो सर्व क्षणभंगुर विज्ञानवाद अयोग्य छे. कधुं छे केः
कह वा सव्वं खणियं विन्नायं ?, जई मई सुयाओत्ति । तदसंखसमयसुत्तत्थ -गणपरिणामओ जुत्तं ॥४८॥ नउ पइसमयविणासे, जेणेक्क्क्कक्खरंपि य पयस्स । संखाईयसमइयं संखेज्जाई पयं ताई ॥ ४९ ॥ संखेज्जपयं वक्कं तदत्थगहण परिणामओ होजा। सव्वखणभंगनाणं, तदजुत्तं समयनट्ठस्स ॥ ५० ॥
आ त्रण गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. सर्वथा नाश स्वीकारे छते तृप्ति, श्रम, ग्लानि, साधर्म्य, विपक्ष, प्रत्ययादि, तथा अध्ययन, ध्यान अने भावना ए सर्वे नहि घटी शके; कारण के पूर्व संस्कारनी अनुवृत्ति ( परंपरा ) मां तृप्ति वगेरेनी योग्यता होड़ शके [ जमके भोजन करती वखते भोजन करनार क्षणिक होवाथी प्रत्येक काळ लेतां भोजन करनार भिन्न भिन्न थशे अने भोजनक्रियाने अंते ते भोक्ता पण रहेशे नहि तो तृप्ति कोने थशे ? एम श्रम वगेरेमां जाणी लेवुं ]. भाष्यकार कहे छे के:१. दरेक क्षणमां भवो नाशवंत छे.
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१ स्थाना
ध्ययने
आत्म
सिद्धिः
२ सूत्रम्.
॥ २१ ॥