Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, २.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइट्टिपमाणपरूवणं
[११ पुच्छामंतरेण · ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्यपमाणेण अणंता' इदि किण्ण वुश्चदे ? न, अस्य स्वकर्तृत्वनिराकरणद्वारेणाप्तकर्तृत्वप्रतिपादनफलत्वात् । तदपि किं फलमिति चेन, 'वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यम्' इति न्यायात् वचनस्यास्य प्रामाण्यप्रदर्शनफलम् । भूतबल्यादीनामाचार्याणां व व्यापार इति चेन्न, तेपां व्याख्यातृत्वाभ्युपगमात् । अणंता इदि पमाणं चुतं, एवं वुत्ते संखेज्जासंखेज्जाणं पडिणियत्ती । तं च अणंतमणेयविधं । तं जहा----
णामं ठवणा दवियं सस्सद गणणापदेसियमणतं ।
एगो उपयादेसो वित्थारो सब भावो य ॥८॥ तत्थ णामाणंतं जीवाजीवमिस्सदव्यस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता इदि । जंतं हवणाणतं णाम तं कढकम्मेसु वा चित्तकम्मे वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण
शंका--'कितने हैं। इसप्रकारके प्रश्नके विना ही ' ओघनिर्देश मिथ्यारहिं जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्त हैं' इसप्रकारका सूत्र क्यों नहीं कहा?
समाधान--नहीं, क्योंकि, अपने कर्तृत्वका निराकरण करके आप्तके कर्तृत्वक्षा प्रतिपादन करना कितने हैं ' इस पदके सूत्र में देनेका फल है।
शंका--अपने कर्तृत्वका निराकरण करके आप्तकर्तृत्वके प्रतिपादन करनेका भी क्या फल है?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, 'वक्ताको प्रमाणतासे वचनोंमें प्रमाणता आती है। इस न्यायके अनुसार 'अनन्त हैं' इस ववनकी प्रमाणता दिग्वाना इसका फल है।
शंका-- जब कि 'ओघेण मिच्छाइट्टी' इत्यादि वचनके कर्ता आप्त सिद्ध हो जाते है तो फिर भूतबलि आदि आचार्यों का व्यापार कहां पर होता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, उनको आप्तके वचनोंका व्याख्याता स्वीकार किया है, इसलिये आप्तके वचनोंके व्याख्यान करने में उनका व्यापार होता है।
सूत्रमें दिये गये ' अणंता' इस पदके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कहा गया है। मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त है, इसप्रकार कथन करने पर संख्यात और असंख्यातकी निवृत्ति हो जाती है । वह अनन्त अनेक प्रकारका है, जो इसप्रकार है
नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त, इसप्रकार अनन्तके ग्यारह भेद हैं ॥८॥
उनसे कारणके बिना ही जीव, अजीव और मिश्र द्रव्यकी अनन्त ऐसी संशा करना नाम अनन्त है।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, १ सीवणिखइरसोगकट्ठादिसxx जहासरूपेण घडियडवणाxx चित्तारहितो वण्णविसेंसेहि णिकपणाणि
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