Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ६१. दव्वट्टियणए अवलंबिज्जमाणे ओघेण सह एगत्तदंसणादो । पञ्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो तं पुरदो भणिस्सामो ।
वाणवेंतरदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा
एदस्स थूलत्थस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो।।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ६२॥
एदस्स वि सुहुमत्थसुत्तस्स अत्थो णव्वदे । खेत्तेण पदरस्स संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएण ॥ ६३ ॥
एदस्स अइसुहुमपरूवणट्ठमागदसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। पदरस्सेदि विहज्जमाणरासिणिद्देसो । संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएणेत्ति लद्धणिद्देसो । पदरस्स संखेज्जजोयण
द्रव्यार्थिक नयका अवलम्ब करने पर ओघ प्ररूपणाके साथ गुणस्थानप्रतिपन्न भवनवासी प्ररूपणाकी एकता अर्थात् समानता देखी जाती है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो उक्त दोनों प्ररूपणाओं में विशेषता है ही। उस विशेषताको आगे बतलावेंगे।
_वानव्यन्तर देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात
स्थूल अर्थका प्रतिपादन करनेवाले इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कालकी अपेक्षा वानव्यन्तर देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ६२ ॥
सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनेवाले इस सूत्रका भी अर्थ ज्ञात है।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगप्रतरके संख्यातसौ योजनोंके वर्गरूप प्रतिभागसे वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि राशि आती है, अर्थात् संख्यातसो योजनोंके वर्गरूप भागहारका जगप्रतरमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देव हैं ॥ ६३ ॥
अति सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनेके लिये आये हुए इस सूत्रका अर्थ कहते हैंसूत्रमें 'पदरस्स' इस पदसे अपह्रियमाण राशिका निर्देश किया है। ‘संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएण' इस पदसे भागहार राशिके प्रतिपादनपूर्वक लब्ध राशिका निर्देश किया है।
१ असखिज्जा वाणमंतरा। अनु, द्वा. सू. १४१ पत्र १७९.
२ तिण्णिसयजोयणाणं xx| कदिहिदपदरं वेंतरपरिमाणं ॥ गो. जी. १६०. संखेज्जजायणाणं सूहपएसे हिं माइओ पयरो। वंतरसुरेहिं हीरह एवं एकेकमेए ण ॥ पश्चसं. २, १४.
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